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तत्त्वमीमांसा
1. गति का अभाव
2. निरुपग्रहता - गति तत्त्व के आलम्बन का अभाव ।
3. रुक्षता
4. लोकानुभाव - लोक की सहज मर्यादा ।
लोकस्थिति के वर्णन के प्रसंग में भी जीव और पुद्गल की अलोक में गति नहीं होती, इसके लिए धर्मास्तिकाय से भिन्न कारणों का भी उल्लेख है ।
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जहां जीव और पुद्गलों का गति पर्याय है वहां लोक है और जहां लोक है वहां जीव और पुद्गलों की गतिपर्याय है।' यहां जीव - पुद्गल की गतिपर्याय का निषेध किया गया है तथा लोक की सीमा भी गतिपर्याय के आधार पर स्वीकार की है फिर भी यहां पर एक जिज्ञासा तो बनी ही रहती है कि गतिपर्याय लोक में ही क्यों है, उसके बाहर क्यों नहीं ?
समस्त लोकान्तों के पुद्गल दूसरे रुक्ष पुद्गलों के द्वारा अबद्ध और अस्पृष्ट होने पर भी लोकान्त के स्वभाव से रुक्ष हो जाते हैं, जिससे जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते हैं । ' प्रस्तुत वक्तव्य से फलित होता है कि अलोक में जीव और पुद्गल की गति इसलिए नहीं होती कि लोकान्त में पुद्गल रुक्ष हो जाते हैं, अत: वे गति में सहयोगी नहीं बनते । धर्मास्तिकाय के होने पर भी पुद्गल के सहयोग के बिना गति नहीं हो सकती ।
परमाणु के गति स्खलन के कारणों में भी गतितत्त्व का उल्लेख नहीं हुआ है । '
भगवती में एक प्रश्न उपस्थित किया गया है कि लोकान्त में खड़ा रहकर देव अलोक में अपना हाथ हिला सकता है क्या ? ' उत्तर दिया गया कि नहीं हिला सकता और उसका कारण बताया है कि वहां पर पुद्गल नहीं है अत: गति नहीं हो सकती । "जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला, पोग्गलमेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए आहिज्जइ । अलोए णं नेवत्थि जीवा नेवत्थि पोग्गला ।' स्पष्ट है कि यहां पर जीव और अजीव की गति का कारण पुद्गल को माना गया है। धर्मास्तिकाय के होने पर भी पुद्गल के सहयोग के बिना जीव एवं पुद्गल की गति नहीं होती । अलोक में पुद्गल नहीं है, इसलिए वहां जीव एवं पुद्गल नहीं जा सकते। ' उपर्युक्त वक्तव्यों के आधार पर हम यह निष्कर्ष तो नहीं निकाल सकते कि "यदि भगवती के इस स्तर की रचना के समय में धर्मास्तिकाय
1. ठाणं, 10/1/9,
2. वही, 10 / 1 /10
3. वही, 3 / 498, तिविहे पोग्गलपडिघाते पण्णत्ते, तं जहा परमाणु पोग्गले परमाणुपोग्गलं पप्प पडिहण्णिज्जा, लुक्खत्ताए वा पडिण्णिज्जा, लोगंते वा पडिहण्णिज्ना ।
4. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 16/118
5. वही, 16 / 119
6.
भगवती, वृति पत्र 717, इदमुक्तं भवति - यत्र क्षेत्रे पुद्गलास्तत्रैव जीवानां पुद्गलानां च गतिर्भवति, एवं चालोके नैव संति जीवा नैव च सन्ति पुद्गला इति तत्र जीवपुद्गलानां गतिर्नास्ति, तदभावाच्चालोके देवो हस्ताद्याकुण्टयितुं प्रसारयितुं वा न प्रभुरिति ।
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