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जैन आगम : वनस्पति कोश
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अंजणई अंजणई (अञ्जनी) कालीकपास। प० १४०५
विमर्श-अंजणई शब्द की संस्कृत छाया अञ्जनकी बनती है। अञ्जनकी शब्द आयर्वेद के कोशों में नहीं मिला है। एक पद में संधि करने से अंजणई की छाया अञ्जनी बन सकती है। अञ्जनी शब्द मिलता है। अञ्जनी का अर्थ दिया जा रहा है। अञ्जनी के पर्यायवाची नाम -
कालाञ्जनी चाञ्जनी च, रेचनी चासिताञ्जनी। नीलाञ्जनी च कृष्णाभा, काली कृष्णाञ्जनी च सा।
कालाञ्जनी,अञ्जनी, रेचनी, असिताञ्जनी, नीलाञ्जनी, कृष्णाभा, काली, कृष्णाञ्जनी ये सब कालीकपास के संस्कृत नाम हैं।
(राज०नि०४।१८६ पृ० ९९) अन्य भाषाओं में नाम -
हि०-कालीकपास। बं०-कालिकासिनी, तुला। मं०कालीसरकी, कापलशी। ग०-हिरवणी कपाशिया। क०हत्ति काउहत्ति। ते०-पतिचेटु। अ०-काटन्। फा०कुतुनपुवेदना। अ०-कुतुन हबुल कुतना अं0-Cotton (काटन्)। ले०-Gossypium Nigrum (गॉसिपिअम् नायग्रम)।
पुष्प
उत्पत्ति स्थान-यह मध्य और दक्षिण भारत, उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार, हिमालय की घाटी से गंगा तक और राजस्थान आदि कई प्रांतों में पाया जाता है। यह प्रायः नदी-नालों की ढालों पर अधिक होता है।
विवरण-इसका छोटा वृक्ष कांटेदार देखने में सुन्दर और सघन होता है। छाल धूसर रंग की मोटी एवं खुरदरी होती है। जड़ भारी पीताभ तेलिया तथा मजबूत होती है। जड़ की छाल दालचीनी की अपेक्षा भूरे रंग की रहती है। पत्ते कनेर पत्तों के समान तीन से पांच इंच लम्बे, एक से सवा दो इंच चौड़े आयताकार या कोई अंडाकार होते हैं। पुष्पोद्गम के पूर्व पत्ते गिर जाते हैं। फूल सुगंधित सफेद रंग के होते हैं। फल कच्ची अवस्था में नीले और पकने पर जामुनी लाल ४ से ६ इंच बड़े तथा मांसल होते हैं। बीज गुठलीदार और बड़े होते हैं।
(भाव. नि. पृ. ३६५)
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