Book Title: Jain Agam Vadya Kosh Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 7
________________ सम्पादकीय जैन आगमों का ज्ञान सूक्ष्म और गहनतम है। इसमें आत्मविद्या के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का विस्तार से वर्णन किया गया है। शायद ही ऐसा कोई विषय हो जिसका उल्लेख आगम साहित्य में न हुआ हो। किन्तु अभी तक कुछेक विषयों को छोड़कर अनेक विषय ऐसे हैं, जिनका विधिवत् स्पर्श भी नहीं किया गया। अनेक विषय अछूते हैं। आवश्यकता है कि उन विषयों को छुआ जाए और भारतीय संस्कृति की प्राचीन धरोहर को वर्तमान के संदर्भ में प्रस्तुत किया जाए। आज प्राच्य भारतीय विद्याओं पर अनेक विद्वज्जन शोध कार्य कर रहे हैं और अनेक महत्त्वपर्ण शोध ग्रंथ प्रकाश में आए हैं। जैन परम्परा के विपुल साहित्य पर भी काफी शोध कार्य हुआ है और हो रहा है। गुरुदेव श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ के कुशल नेतृत्व ने शोध कार्य को महत्त्वपूर्ण गति प्रदान की, जिसके फलस्वरूप अनेक शोध पूर्ण आगम एवं कोश प्रकाश में आए। प्राचीन भारतीय संगीत वाद्य पर अनेक शोध कार्य हुए हैं, जिनका आधार वैदिक साहित्य रहा है। किन्तु जैनागमों में प्रयुक्त वाद्य वाचक शब्दों के विषय में कार्य नहीं किया गया। संभवतः यह पहला कार्य है, जिसमें जैनागमों में प्रयुक्त वाद्य वाचक शब्दों की पहचान का कार्य किया गया है। वाद्य कोश की परिकल्पना और निष्पत्ति गंगाशहर मर्यादा महोत्सव (वि. सं. २०५७) के पश्चात आचार्यश्री महाप्रज्ञ का पदार्पण बीकानेर हुआ दोपहर को भोजन के पश्चात् टहलते हुए फरमाया-प्राणी कोश की भांति यदि वाद्य कोश भी तैयार हो जाए तो अर्थावबोध के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य हो सकता है। क्योंकि व्याख्याकारों ने अधिकांश शब्दों को “लोकतोऽवसेया” “अव्याख्यातास्तु भेदा लोकतः प्रत्येतव्याः' वाद्यविशेष, तूण विशेषः आदि-आदि कहकर उनके अवबोध की पूर्ण अवगति नहीं दी। आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने मुनिद्वय (मुनि वीरेन्द्र कुमार, मुनि जयकुमार) को कार्य करने का निर्देश दिया। हम दोनों संत उसी दिन से इस कार्य में संलग्न हो गए। सर्वप्रथम हमने राजप्रश्नीय सूत्र को आदर्श मानकर जैनागमों में प्रयुक्त वाद्य वाचक शब्दों की एक सूची बनाई। फिर उनके अर्थावबोध एवं स्वरूप निर्णय के लिए अनेक ग्रंथों का अवलोकन प्रारंभ किया। समय के साथ भाषा शैली और अर्थ में परिवर्तन होता है, यह सर्वविदित है। सोमेश्वर देव ने अपने संगीत ग्रंथ 'मानसोल्लास' ३/५७२ में 'तंत्रीभेदैः क्रियाभेदैः वीणावाद्यमनेकधा' कहकर अर्थभेद और क्रियाभेद से वीणाओं के अनेक प्रकारों को स्वीकार किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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