Book Title: Jain Agam Vadya Kosh
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 30
________________ जैन आगम वाद्य कोश विवरण-काहला के समान यह वाद्य भी तांबा, अपने साथ लेकर चलते हैं। यह आकार में छोटा चांदी और सोने से निर्मित होता था। वर्तमान में होता है। लगभग २५ सेंटीमीटर ऊंचा और १५ग्रामवासी, आदिवासी तांबे या पीतल की तुरही का २० सेंटीमीटर चौड़ा लकड़ी का पोला, वर्तुलाकार प्रयोग करते हैं। प्राचीन काल में प्रायः एक साथ खोल, जिसकी नीचे की तह चमड़े से मढ़ी हुई दो तुण्डकिनी का वादन होता था, वर्तमान में प्रायः होती है। बाहर की तरफ लगभग ७५ सेंटीमीटर एक का वादन होता है। वर्तमान काल में तुरही के लम्बे बांस के टुकड़े को इसमें कस दिया जाता अनेक रूप देखने में आते हैं। इनमें कोई छिद्र नहीं है। इस बांस के ऊपर एक खूटी गाढ़ कर तार होता, केवल हवा फूंककर उसके विभिन्न दबावों से कस दिया जाता है। यही तार नीचे मढ़े हुए हिस्से ऊंचे-नीचे स्वरों की उत्पत्ति की जाती है। दक्षिण तक जाता है। गायक इस तुनतुने को अपने हाथ में सीधी तुरही को कोम्बु और पीतल की में पकड़े रहता है तथा अंगुली से तार को छेड़ घुमावदार तुरही को तातुरी कहते हैं। संस्कृत में कर विभिन्न स्वर निकालता रहता है। महाराष्ट्र के सर्पाकार तुरही को वक्री कहते हैं। लोकगीतों-खासकर तमाशा और पौवाड़ा में तुनतुने जन्मोत्सव, विवाहोत्सव, मांगलिक अवसर और की संगीतात्मक क्षमता का सही रूप देखने को धार्मिक शोभायात्राओं में इसका वादन किया मिलता है। तार को मनचाहे स्वर में मिला लिया जाता है। जाता है तथा इसके दण्ड की दाहिने हाथ की मठ में पकड़ कर दाहिने हाथ की ही तर्जनी अंगुली से वादन किया जाता है। वादन की प्रक्रिया सामान्य तूण (तूण) निसि. १७/१३७, राज. ७७ एकतारा जैसी ही है। इसे महाराष्ट्र में तुण-तुणे तुण, तुनतुना, तुण-तुण, तुण-तुणे। कहते हैं। आकार-डिब्बे पर बंधे हुए बांस के समान। तूणक (तूणक) प्रश्न व्या. १०/१४ तुइला, तूणक आकार-सामान्य आकृति वाली एक तंत्री वीणा। विवरण-यह वाद्य भी बहुत तेजी से लुप्त होता जा रहा है। और इसके वादक भी बहत कम हैं। इसका दंड लम्बाई में लगभग ९ अंगुल तथा २० सेमी. गोलाई का होता है। इस वाद्य में बांस की नली पर एक तांत कसी रहती है। इसमें न मेरू होता है, न मुंडेर। दूसरी ओर कोई खूटी भी नहीं होती। तइला की ऊपरी ओर दंड के नीचे आधी कटी लौकी लगी होती है, यह वाद्य वादक के शरीर के समलंब स्थिति में रहता है तथा लौकी की तुंबी वादक के वक्ष के पास रहती है। एक विवरण-यह वाद्य प्रायः दक्षिण-मध्य भारत और पश्चिम भारत में प्रचलित है। वहां के भिक्षुक इसे Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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