________________
२८
जैन आगम वाद्य कोश इससे फूंकी गई हवा खोखली लौकी में भर जाती बद्धीसक, बुआंग, धनुषाकार वाद्य। है, वह दाब बढ़ाती है और तब बांस की दो ।
आकार-धनुषाकार। नलियों से प्रवाहित होती है। पुंगी की तरह इसमें भी थरथराने वाले पर्दे लगे होते हैं, जो दिखाई नहीं देते। इसमें बाहर भी छिद्र होते हैं जो संगीत बजाने के काम आते हैं। एक और अतिरिक्त भाग है जो महुदी में नहीं होता, यह ध्वनि को दिशा व विस्तार देने के लिए टीप होती है। यह टीप अथवा चोंगा ताड़ की पत्तियों का बना होता है, जिसकी पत्तियों को चीरकर आपस में गोल गोल सीले आकार में बुन दिया जाता है। तारपो गुजरात के ग्रामीण अंचलों और महाराष्ट्र के वरली लोगों में प्रचलित एक खास प्रकार का फूंक वाला वाद्य है। इस वाद्य को दो-तीन लौकी के तुम्बे को जोड़कर बनाते हैं इसलिए कई क्षेत्रों में इसे बद्धक भी कहते हैं। भाद्रपद (सितम्बर) माह के दूसरे पखवाड़े में जब धान की फसल काटने को तैयार होती है, वरली ग्रामीण एकत्रित होते हैं और तारपों का स्वर कईकई रात तक काफी दूर से ही सुना जा सकता है। आश्विन (अक्टूबर) माह के आरंभ से हर रोज सूरज ढलते ही तारपो नृत्य किया जाता है। वादक गोला बनाकर बीच में खड़े हो जाते हैं और नर्तक उनके इर्द गिर्द गोल गोल घूमते हैं। तारपो-वादक मुड़ते हैं तो वे भी मुड़ जाते हैं। वे कभी भी तारपो-वादक की ओर पीठ नहीं करते हैं। विशेष विवरण यह एक प्राचीन तत वाद्य था. जिसकी अवसरों पर वरली भारी संख्या में महालक्ष्मी
अनेक किस्में आज भी अलंग-अगल क्षेत्रों में मंदिर पर इकट्ठे हो जाते हैं, जहां धार्मिक प्रवचन
भिन्न-भिन्न नामों से प्राप्त होती हैं। उड़ीसा का होता है और उत्सव के अंग के रूप में उनका
बुआंग इसी वाद्य का एक प्रकार है, जिसकी परस्पर मुकाबला भी होता है।
लम्बाई लगभग एक मीटर होती है। (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य- वाद्य यंत्र)
इसे बांस की नली, प्रतिध्वनि उत्पन्न करने वाले
खोल तथा रस्से से बनाया जाता है। अंडे के बद्धीसग (बद्धीसग) राज. ७७, आ. चू. ११/२, आकार के बांस के खोल पर कागज चिपका कर प्रश्न व्या. १०/१४
इसे ध्वनि रोक यंत्र में बदल दिया जाता है। कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org