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आकार - तश्तरी सदृश । विवरण-यह वाद्य कांसे का बनाया जाता है, जिसका एक भाग चपटा और ऊपर की ओर उभरा रहता है। इस वाद्य को पकड़ने के लिए इसके गोल चपटे भाग में डोरी डालकर उन्हें संबद्ध कर दिया जाता है। इसका प्रयोग ढ़ोल बजाते समय अथवा नृत्य के साथ किया जाता I (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-संगीत वाद्य गलु)
वंस (वंश) निसि. १७/१३९, नंदी. गा. ३८, राज. ७७, जम्बू. ३/३१
वंशी, बांसुरी
आकार - वेणु के सदृश ।
विवरण - यह भारत का अति प्राचीन सुषिर वाद्य है, जिसे प्रायः मेले आदि के अवसर पर बिकते हुए देखा जाता है। आधुनिक युग में बांसुरी की अनेक किस्में प्राप्त हैं।
प्राचीन काल में वंशी बनाने के लिए चिकना, सीधा तथा बिना गांठ के बांस का प्रयोग तो करते ही थे, खैर की लकड़ी, हाथी दांत, लाल चन्दन तथा सफेद चन्दन की भी बांसुरी बनती थी । लोहा, कांसा, चांदी, सोना आदि की भी बांसुरियां बनाई जाती थीं। बांसुरियां गोल आकार की सीधी तथा चिकनी होती थीं। प्रायः कनिष्ठा अंगुली प्रवेश कर सके इतनी पोली होती थी । वंशी की लम्बाई १० अंगुल से लेकर ३५ अंगुल तक होती है। ऊपरी भाग में दो, तीन अथवा चार अंगुल छोड़कर एक अंगुल के प्रमाण से एक छेद किया
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जैन आगम वाद्य कोश
जाता है, जिसे मुखरन्ध्र कहते हैं। बांसुरी की लम्बाई के अनुपात में ४ से १५ तक छेद किये जाते हैं। मुखरन्ध्र के पास वादन के लिए एक चोंच सी बना दी जाती है। जब संगीतकार चोंच से हवा फूंकता है तो इस छेद की पत्ती के किनारों से हवा के टकराने से ध्वनि पैदा होती है। वादक अपनी अंगुलियों से रन्ध्रों को खोलते, बंद करते समय सुरीली ध्वनि निकालता है। इस किस्म की वंशी को उत्तर भारत में बांसुरी कहा जाता है। संगीत सार और संगीत रत्नाकर में इसके १४ भेद किये गए हैं-जैसे उमापति, त्रिपुरुष, चतुर्मुख, पंचवक्त्र आदि ।
वच्चग (वच्चक) जीवा. ३/५८८, जं. प्र. १०१ अलगोजा, वच्चक, बीन ।
आकार - सतारा सदृश ।
विवरण- यह एक प्राचीन वाद्य है। लोक संगीत में इसका विशेष प्रयोग होता रहा है।
इसे बांस अथवा लकड़ी को पोला कर के बनाया जाता है। इसमें दो बांसुरी रहती हैं, जिनमें चारचार छिद्र होते हैं, जिन्हें एक साथ फूंका जाता है। इसमें दोनों हाथों का प्रयोग होता है तथा प्रत्येक बांसुरी पर तीन-तीन अंगुलियां रखी जाती हैं। इस वाद्य से संगति भी होती है और स्वतंत्र रूप से भी वादन किया जाता है।
इस वाद्य का स्वर बहुत ऊंचा होता है फलतः इसके साथ गाने वाले भी बहुत ऊंचे स्वर से गाते हैं। सिन्धु प्रदेश में साधारण अंतर के साथ इसे वच्चक कहते हैं। राजस्थान के अलवर जिले में मेव इसे गीतों के साथ बजाते हैं। राजस्थान के लंगाओ ने इसके आंतरिक गुण का उपयोग कर इसे लोक संगीत के योग्य बनाया है।
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