Book Title: Jain Agam Vadya Kosh
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 52
________________ जैन आगम वाद्य कोश ४१ (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-भारतीय वाद्य से निकाला जाता है। इसकी दो जातियां गलु) 'दक्षिणावर्त' तथा 'वामावर्त' नाम से प्रसिद्ध है। संगीत पारिजात के अनुसार वाद्योपयोगी शंख का संख (ख) राज ७७. उत्त ११/१५ ठाणं पेट बारह अंगुल का होता है। उसमें मुख का छेद ७/४२, दसा. १०/१७, नंदी. ४, अनु. ३०१ बेर के बीज के बराबर होता है तथा उसके ऊपर शंख पतली धातु का कलश बनाते हैं। इस कलश को मुख में रखकर शंख को वाद्य की भांति बजाया जाता है। तानसेन कृत संगीतसार नामक ग्रंथ में पृ. १११पर शंख का विशेष विवरण प्राप्त होता है जो निम्नवत् "जहां शंख ग्यारह अंगल को लम्बी होय और शुद्ध जाकी नाभी भीतर सों सवांरी होय” यह तीन धातु को भोगली के आकार सिखर लगाइए जोमें शंख को मुल आधे सो सिखर लगाइए। तल सिखर के मुख उपर आधे अंगुल के प्रमान छेद करिए। सिखर के भीतर उड़द भावे ऐसों छेद करिए सो संख जानिए। सो या शंख को दो हाथ में लेके (हुं भुं धां दिग दिग) इन पाटाक्षर सो बजाइए। आकार-विभिन्न आकार एवं प्रकार के। विवरण-शंख भारत का अति प्राचीन सुषिर वाद्य सणालिय (सणालिय) निसित्र १७/१३८ है। आगम युग से ही इसका प्रयोग धार्मिक तथा। श्री मंडल, घंटी बाजा, युनलो (चीन), थाली युद्ध आदि में होता है। प्राचीन काल में शंख के तरंग, सुनाली। अनेक रूप प्रचलित रहे हैं। विशेष रूप से एक आकार-लगभग डेढ़ मीटर ऊंचा धातु का एक नली बनाकर उसके आदि या अंत में शंख ढांचा। लगाकर वादन की प्रक्रिया प्राचीन काल से पायी विवरण-इस प्राचीन घन वाद्य के ढांचे में लोहे या जाती है जो संगीत-शास्त्रों के अनुसार मध्य युग कांसे की ८,१३ या १६ गोल चपटी प्लेटें लटकी तक वर्तमान रही। रहती हैं। ये प्लेटें भिन्न-भिन्न मोटाई तथा व्यास आधुनिक काल में शंख का प्रयोग धार्मिक उत्सवों की होती हैं, जिनको सप्तक के मनचाहे स्वरों में में ही प्रायः होता देखा जाता है जिसका रूप मिलाया जा सकता है। प्राकृतिक ही है। धुन निकालने के लिए इन स्वरों को लकड़ी की शंख एक सामुद्रिक जीव का ढांचा है, जो समुद्र डंडी के प्रहार से बजाया जाता है। लोक संगीत Jan Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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