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जैन आगम वाद्य कोश
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वद्धीसग (वद्धीसग) निसि. १७/१३७
और शास्त्रीय संगीत तक प्रचलित होने का गौरव वद्धीसक, बुआंग, धनुषाकार वाद्य।
प्राप्त है। इसका कारण आड़ी बांसुरी का
वैविध्यपूर्ण होना प्रतीत होता है। भारतीय संगीत (विवरण के लिए द्रष्टव्य-बद्धीसग)
अपनी आवृत्तियों के सूक्ष्म अंतर की उत्कृष्टता
तथा अदाकारी में बहुत समृद्ध है। पहले को श्रुति वरमुरय (वरमुरज) प्रश्न व्या. १०/१४
और दसरे को गमक कहा जाता है। यह अंगलियों श्रेष्ठ मुरज .
के चपल संचालन, फूंक जनित हवा के दबाव तथा आकार-सामान्य मुरज से बड़ा।
बांसुरी के अधर पर रखने के कोण में अंतर
लाकर किया जाता है। विवरण-यह वाद्य मुरज की ही एक श्रेष्ठ प्रजाति थी, जिसे विशेष अवसरों पर उपयोग में लिया
यह वाद्य एक सिरे पर खुला और दूसरी ओर से
बंद होता है। बंद सिरे से कुछ ही सेमी. नीचे एक जाता था।
छेद फूंक मारने के लिए होता है, जिसको मुहाना (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-मुरज)
या फूंक मारने का रन्ध्र कहते हैं। वाद्य यंत्र में
थोड़ी-थोड़ी दूर पर अनेक रन्ध्र होते हैं, जिनके वल्लकि (वल्लकी) प्र. व्या. १०/१४, ज्ञाता. ऊपर अंगुली के संचालन से धुन बजायी जाती है। १७/२२
इसका निर्माण बांस, पीतल, चांदी आदि से किया वल्की
जाता है। विवरण यह एक प्राचीन वीणा थी जिसका उल्लेख जैनागमों एवं संगीत ग्रंथों में प्राप्त होता है। वालिया (वालिका) निसि. १७/१३८ संगीतोपनिषत्सारोद्धार ४/९ में इस वीणा का मात्र
कटोला, सूप वाद्य, वालिका। उल्लेख हुआ है। अभिधान चिंतामणि में
आकार-विषम चतुर्भुजाकार खोखला वाद्य। "चंडालानां तु वल्लकी' कहकर इसे चंडालों की वीणा माना है। किंतु किसी भी ग्रन्थ में इसके
विवरण-यह वाद्य प्राचीन समय में पूरे भारत में स्वरूप तथा वादन संबंधी कोई जानकारी प्राप्त
अलग-अलग नामों से प्राप्त होता था, जिसे नहीं होती। अतएव इसके स्वरूप आदि के संदर्भ
वर्तमान में कटोला वाद्य, सूप वाद्य, वाली वाद्य में कुछ भी कहना संभव नहीं है।
कहते हैं। मध्यप्रदेश के आबुल मारिआ संगीत और नृत्य में
इस वाद्य का प्रयोग करते हैं। यह काष्ठ से निर्मित वाली (वाली) राज. ७७
कुछ-कुछ सूप जैसा होता है। लंबाई की ओर आडी वंशी, वाली
खुला रहता है ताकि उस ओर की तंग झिरी के आकार-बांसुरी के सदृशः।
माध्यम से अंदर से उसे खोखला किया जा विवरण-आड़ी बांसुरी संपूर्ण देश में सर्वाधिक सके। यह धन-वाद्य वादक के गले में लटका रहता लोकप्रिय और सुपरिचित है। यह अपने वर्ग का है और छड़ियों से पीटकर बजाया जाता है। ऐसा अकेला वाद्य भी है जिसे आदिवासी, लोक (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-वाद्य यंत्र)
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