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जैन आगम वाद्य कोश
आदि।
आटे अथवा मिट्टी की पूलिका के स्थान पर मुरय, मुरव (मुरज) निसि. १७/१३९, राज. लोहे के चूर्ण आदि से बना मसाला लगाया ७७, दसा. १०/१७, पज्जो. ७५, अनु. ३७५, जाता है।
औप. ६७ विमर्श-सारंग देव ने (संगीत रत्नाकार वाद्याध्याय मुरज, मुरसु (तमिल), मुरव (इंडोनेशिया) १०२७) मृदंग को मुरज और मर्दल का पर्याय आकार-मृदंग के सदृश। माना है। अभिनव गुप्ताचार्य ने (नाटय शास्त्र ३४
विवरण-मुरज का आकार भी मृदंग और मर्दल अध्याय पृ. ४६०) मुरज का पर्याय माना है। डॉ.
जैसा ही प्रतीत होता है लेकिन उसके बजाने वाले लालमणि मिश्र ने (भारतीय संगीत वाद्य पृ. ९५)
मुख अपेक्षाकृत छोटे थे। संस्कृत साहित्य के मुरज और मर्दल का पर्याय माना है। यह
अतिरिक्त संगम काल के तमिल साहित्य में मुरसु विमर्शनीय है क्योंकि राज. ७७, औप. ६७, दसा. की कई किस्मों का वर्णन मिलता है यथा-वीर १०/१७,१८ में मुरज के बाद मृदंग शब्द आया
मुरसु (युद्ध वाद्य), त्याग मुरसु (जिसका वादन है, जो दो भिन्न वाद्यों का सूचक है। बी. चैतन्य
दान या अनुदान की घोषणा के लिए होता था) देव ने (वाद्य यंत्र पृ. ४२-४३) भी मुरज और। मृदंग को दो भिन्न-भिन्न वाद्य मानते हुए उपरोक्त
मुरज का चलन इंडोनेशिया में होने के प्रमाण हैं कथन की पुष्टि की है।
जहां इसका नाम मुरव हो गया।
विमर्श-सारंग देव ने (संगीत रत्नाकार वाद्याध्याय मुगुंद, मगुंद (मुकुन्द) राज.७७, जीवा. ३/५८८
१०२७) मुरज को मृदंग का पर्याय माना है। श्री खोल, खोल, मुकुन्द, मकंद।
अभिनव गुप्ताचार्य ने (नाट्य शास्त्र ३४ अध्याय आकार-मुरज सदृश।
पृ. ४०५) भी उक्त कथन की पुष्टि की है। यह विवरण यह एक अति प्राचीन अवनद्ध वाद्य है,
विमर्शनीय है क्योंकि राज. ७७ दसा.१०/१७ में जिसकी अनेक किस्में अलग-अलग क्षेत्रों में पाई
मृदंग और मुरज का भिन्न-भिन्न वाद्य के रूप में
नामोल्लेख हुआ है। यह संभावना की जा सकती जाती हैं। भक्ति और कीर्तन के साथ इस वाद्य का
है-आकार-प्रकार की साम्यता के कारण गहरा संबंध है। कहते हैं-चैतन्य देव महाप्रभु का
मध्यकालीन एवं आधुनिक संगीतज्ञों ने मुरज को यह प्रिय वाद्य था।
मृदंग का ही पर्याय मान लिया। यह वाद्य लगभग पौन मीटर लम्बा होता है, दूसरे मुख की अपेक्षा एक मुख काफी चौड़ा होता है। यह लकड़ी या पकी मिट्टी का होता
रगसिगा (रगसिगा) जीवा. ३/५८८ है और मृदंग की भांति कई पर्तों वाले दो मुख का रगसिगा, रणसिगा, रणसिंग वक्री, रणसिंग होता हैं।
आकार-शहनाई सदृश। यह बंगाल में खोल, श्री खोल, मणिपुर, नागालैंड विवरण यह एक प्राचीन सुषिर वाद्य था, जिसकी में मुकुंद, मकंद, पुंग आदि नामों से जाना जाता अनेक किस्में आज भी प्राप्त होती हैं। यह तीन
हाथ लम्बी तांबा अथवा पीतल की खोखली नली,
है।
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