Book Title: Jain Agam Vadya Kosh
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 43
________________ ३२ आकार - मृदंग के सदृश । विवरण- इस वाद्य का ढांचा मिट्टी से बेलन के आकार का बनाया जाता है। इसका एक मुंह छोटा व दूसरा बड़ा होता है। छोटा, जिसे नारी कहते हैं. १०-१२ अंगुल चौड़ा होता है व बड़ा मुंह जिसे नर कहते है, १६ अंगुल चौड़ा होता है। इस पर हिरण या बकरे की खाल मढ़ी जाती है। इसकी खाल सीधी डोरियों द्वारा कसी जाती है। मादल में छल्ले नहीं लगाये जाते । स्वर को ऊंचा और नीचा करने के लिए इसके दोनों मुखों पर यव का आटा लगाया जाता है। विशेष रूप से यह वाद्य भील और गरासिया जाति द्वारा बजाया जाता है। भीलों के विवाह में, मन्दिरों में यह बहुत सुनने में आता है। इसकी आवाज बहुत तेज होती है। मुख्य रूप से इसका प्रयोग जातीय नृत्य मंडलियों में होता है। बंगाल तथा बिहार की भील तथा सन्थाल जातियों के मादल से यह भिन्न है । मद्दल (मर्दल) दसा. १०/२४, राज. ७७ मर्दल आकार - मृदंग के सदृश विवरण - यह एक प्राचीन अवनद्ध वाद्य था, जिसे मध्यकालीन एवं आधुनिक संगीतज्ञों ने मृदंग का ही पर्याय माना है। एक मध्यकालीन लेखक ने मर्दल का वर्णन किया है, जिसके अनुसार मर्दल लगभग ४० सेन्टीमीटर लम्बा तथा बीच में फूला, लकड़ी से बना वाद्य है। इसके एक मुख का व्यास २४ सेन्टीमीटर तथा दूसरे मुख का व्यास लगभग २५ सेन्टीमीटर होता है। दोनों मुखों पर पके चावल में राख मिलाकर लेप किया जाता है। विमर्श - सारंग देव (संगीत रत्नाकार वाद्याध्याय १०२७) तथा डॉ. लालमणि मिश्र ने ( भारतीय Jain Education International जैन आगम वाद्य कोश संगीत वाद्य पृ. ९६) मर्दल को मृदंग का ही पर्याय माना है, जो ठीक प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि राज. ७७ में मृदंग, मुरज और मर्दल का भिन्नभिन्न वाद्यों के रूप में नामोल्लेख हुआ हैं । राज. टी. पृ. ४९-५० में “मर्दल - उभयतः समः वाद्यविशेषः " कहकर मर्दल के मुखों को समान बतलाया हैं। संभव है कि इस प्राचीन वाद्य का लोप मध्यकाल से पूर्व ही हो गया हो । महति, महती ( महती) जीवा. ३ / ५८८, जम्बू. ३/३१, राज. ७७ महती वीणा, महावीणा, नारद वीणा, मत्तकोकिला वीणा, वन वीणा । आकार - संतूर के सदृश । विवरण - महती वीणा का उल्लेख जैनागमों व संगीत के ग्रंथों में प्राप्त है। यह एक प्राचीन वीणा थी, जिसे नारद की वीणा भी कहते थे। नान्यदेव ने भरत भाष्य में महती वीणा को इक्कीस तार वाली कहा है। कोलकाता संग्रहालय में महती वीणा नाम से जो वीणा प्राप्त है, उसमें भी इक्कीस तार हैं। उक्त वीणा को ही कई विद्वानों ने महती वीणा माना है। किन्तु जम्बू. टी. पृ. १०१ और राज. टी. पृ. ४९ में महती को शततंत्रिका वीणा” कहकर इसे सौ तार वाली वीणा कहा है। बी. चैतन्य देव ने (वाद्य यंत्र पृ. ९६) सौ तार वाली वन वीणा अथवा महावीणा का वर्णन किया है, जिसे डंडियों से बजाया जाता था । वाद्य यंत्र के दंड में दस छिद्र होते थे और प्रत्येक छिद्र से दस तार निकलते थे। इस प्रकार कुल मिलाकर सौ तार होते थे। कुछ विद्वानों ने वन वीणा को ही महती वीणा का मूल स्वरूप माना है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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