Book Title: Jain Agam Vadya Kosh
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 42
________________ जैन आगम वाद्य कोश परिवादिनी वीणा कहते हैं। यद्यपि इस वीणा को बजाने वाले अब बहुत कम लोग हैं, फिर भी रबाब आदि की भांति अभी इसका सर्वथा लोप नहीं हुआ है। आगम काल में इसे भ्रामरी वीणा कहते थे, यही वीणा सामान्य परिवर्तन के साथ १३वीं शताब्दी में तंजोरी, १६-१७वीं शताब्दी के आसपास सरस्वती एवं रुद्र वीणा के नाम से प्रसिद्ध हुई । भेरी (भेरी) औप. ६७, निसि. १७/१३६, राज. ७७, नंदी गा. ४४, अनु, ५२२, दसा. १०/१७, पज्जो. ६४,७५ भेरी आकार - बेलनाकार | विवरण - यह वाद्य अति प्राचीन वाद्य था, जिसका प्रयोग युद्धों, जुलूसों तथा विवाहोत्सवों आदि पर होता था। युद्ध की चीख-पुकार, सैनिकों में उत्साह का संचार तथा शत्रुओं में आतंक फैलाने के लिए प्रयुक्त ढोल वादन में अन्य तत वाद्यों के साथ भेरी का प्रयोग किया जाता था। १३वीं शती में लिखे गये "संगीत रत्नाकर" में जो कि संगीत पर रचे सर्वश्रेष्ठ ग्रंथों में से एक माना जाता है, भेरी का संक्षिप्त वर्णन मिलता है - इस वाद्य का ढोल तांबे का बना होता है। यह लगभग ६५ सेन्टीमीटर लम्बा और दो मुखों में प्रत्येक २५ सेन्टीमीटर व्यास का होता है। एक मुख हाथ से बजाया जाता था और दूसरा कोण से। उस समय भेरी की अनेक किस्में विकसित थीं, जैसे-मदन भेरी, रण भेरी, आनन्द भेरी, महा भेरी आदि। आज भी भेरी की बेलनाकार अनेक किस्में प्राप्त होती हैं, जिनका प्रयोग अनेक कार्यों के लिए किया जाता हैं। विमर्श - भग. टी. पृ. २१७ में भेरी को महाढक्का, in Education International ३१ भग. टी. पृ. ४७६ में महाकाहला तथा राज. टी. पृ. ४९-५० में भेरी को ढक्का का पर्याय माना है। यह विमर्शनीय है। संगीत ग्रंथों में भेरी, ढक्का और काहला भिन्न-भिन्न वाद्य के रूप में वर्णित है। मकरिय (मकरिक) निसि. १७/१३८ मकर, पट्टवाद्य, श्रीपर्णी । आकार - चौखटाकार । विवरण - यह वाद्य बेंत काष्ठ का चौखटाकार बनाया जाता है, जो ३२ अथवा ३० अंगुल लम्बा तथा एक हाथ चौड़ा होता है। सारका सदृश ऊपर-नीचे तार से बंधा होता है। इस तार में छोटे-छोटे छल्ले लगे होता हैं। इसे वक्ष के सामने अथवा गोद में रखकर अंगूठे तथा अंगुलियों में राल लगाकर घिसते हुए बजाया जाता है। वर्तमान में इस प्रकार के वाद्य का प्रयोग नहीं के समान है। कई संगीतज्ञों ने इसे मंडल वाद्य कहा है। (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-संगीत रत्नाकर) मड्डय (मड्डक, मड्डय) निसि. १७/१३६, राज. ७७ मादल, मड्डलम् For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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