Book Title: Jain Agam Vadya Kosh
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 38
________________ जैन आगम वाद्य कोश २७ विवरण-देश में सर्वत्र ही सपेरे लोग इस वाद्य का पोया (पोया) भग. ५/६४ प्रयोग करते हैं। गंगाजली के आकार का एक महती काहला तुम्बा लेकर उसके पेंदे में इतना बड़ा छेद करते हैं। भगवती टी. पृ. २१६ में इसे “पोया नाम महती कि उसमें से दो बांसुरी के आकार के बांस जा काहला” कहकर महती काहला होने का संकेत सकें। इन बांसुरियों में ऊपर की ओर नरसल के किया है। दो रीड लगे रहते हैं, जैसे कि बच्चों की सीटियों (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-खरमुही, पेया) में होते हैं। ये दोनों मोम से भली भांति चिपकाये हुए रहते हैं। नीचे के पेंदे को भी मोम से अच्छी प्रकार चिपका दिया जाता है, जिससे वायु बाहर न बद्धक (बद्धक) राज. ७७, प्रश्नव्या. १०/१४ निकल सके। दोनों बांसों में बांसुरी के समान तारपा, घोंघा, खोंगाडा, डोबरु, बद्धक, सात छिद्र आगे तथा एक छिद्र पीछे की ओर होता (महाराष्ट्र) आकार-लगभग पुंगी सदृश। इन नलिकाओं में से एक धुन बजाने के काम आती है, दूसरी केवल सुर निकालने के। इसे पुंगी, जिजीवी, तुम्बी या बीन भी कहते हैं। संस्कत में इसका नाम नागसर है। लौकिक भाषा में इसे पिरली के नाम से भी जाना जाता है। वर्तमान में बांस की नलिकाओं के स्थान पर दो या तीन सुत व्यास वाली पीतल की नली का भी प्रयोग करते हैं, जिसके कारण इस वाद्य को महुवरि भी कहते है। पेया (पेया) राज. ७७ पेया, महती काहला आकार-सामान्य काहला से बड़ा। विवरण इस वाद्य की संरचना का सिद्धांत पुंगी विवरण-इस वाद्य का आकार खरमुही (काहला) सदृश है। लौकी के दो या तीन लम्बे तुम्बों को से काफी बड़ा होता था, जिसकी ध्वनि भी तीव्र एक साथ जोड़कर यह वाद्य बनाया जाता है। लम्बे एवं गंभीर होती थी। वर्तमान में यह वाद्य प्राप्त तुंबे को मराठी में 'दूधिया भोपला' कहते हैं। नहीं है। बांसुरी सदृश इसमें स्वर रन्ध्रों की व्यवस्था होती विमर्श-संगीत के ग्रंथों में पेया नाम के किसी वाद्य है। पीछे की ओर एक छिद्र बनाकर उसमें एक का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। राज. टी. पृ. १२६ नली (माउथ पीस) लगा देते हैं। जो मुखरन्ध्र का में “पेया नाम महती काहला" कहकर इसको कार्य करता है। इसमें बजने वाली एक ही पत्ती महती काहला कहा है। होती है, जो कपाट का कार्य भी करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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