Book Title: Jain Agam Vadya Kosh
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 33
________________ २२ जैन आगम वाद्य कोश हास्यात्मक ध्वनि उत्पन्न होती है तथा स्वर की एक मुख संकीर्ण और दूसरा मुख विस्तृत होता ऊंचाई-नीचाई इतनी अधिक प्राप्त की जा सकती है। है कि उसका अनेक रूपों में उपयोग किया जा विवरणयह वाद्य सामान्यतः मदंग से आकारसकता है। उपंग का जो रूप बंगाल में प्रचलित प्रकार में बड़ा होता था, जिसे विशेष खुशी के है, उसे खंगम या आनंद लहरी कहते हैं। अवसर पर बजाया जाता था। राजस्थान में इसे अपंग कहते है। इस वाद्य का (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-मृदंग) प्रयोग सपेरों और लोक गायकों-विरहा या आल्हा गायकों द्वारा किया जाता है। (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-भारतीय संगीत नकुल (नकुल) राज. ७७ वाद्य) नकुल, नकुली, नकुला। आकार-दो तंत्री युक्त नकुलाकृति वीणा। नंदिघोसा (नंदिघोषा) राज. ७७. १७३. जीवा. विवरण-इस वीणा का उल्लेख प्रायः संगीत के ३/५९८, जम्बू. ३/१७१ सभी ग्रंथों में प्राप्त होता है। संभवतः इसका नंदिघोष प्रचार ईसा की तीन-चार शताब्दी पूर्व से लेकर तेरहवीं शताब्दी पर्यन्त तक रहा। मत्तकोकिला विवरण-नंदिघोष किसी एक वाद्य की ध्वनि का वीणा जिस प्रकार हाथ की अंगुलियों से छेड़कर वाचक नहीं है, अपितु अनेक वाद्यों की ध्वनि का बजायी जाती थी, उसी प्रकार इसको भी बजाया सूचक है। उत्त. टी. पृ. ३०५ में “द्वादश तूर्य जाता था। किन्तु इस वीणा के रूप का कोई संघातो नन्दी तस्य घोषः'। कहकर द्वादश वाद्यों स्पष्ट संकेत प्राप्त नहीं होता है। के घोष को नंदीघोष कहा गया है। ईसा से लगभग २०० वर्ष पूर्व महर्षि भरत ने कतप डा. लालमणि मिश्र ने भारतीय संगीत वाद्य प. विन्यास का वर्णन किया है, जिसका अर्थ होता ४५ में इसे नकुल के आकार का माना है। है-वीणा आदि वादकों के लिए बैठने की व्यवस्था। (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-संगीत सार, प्राचीन संगीत ग्रंथों में पंच महाशब्द और पंच संगीत पारिजात) वाद्य का वर्णन मिलता है। पंच महाशब्द में तुरही, घड़ियाल, ढोल, हुडक्का और शहनाई-के संयुक्त नाली (नाड़ी) जीवा. ३/७८ . वादन के शब्द होते थे। कर्नाटक, केरल और नाली, नादी। उड़ीसा में आज भी पंच वाद्य का प्रचलन है। आकार-बांसुरी के सदृश। (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-वाद्य यंत्र) विवरण-यह एक पुराना वाद्य था। नाद उत्पन्न करने वाली वंश-नलिका होने के कारण प्रारंभ में नंदीमुइंग (नंदी मृदंग) राज. ७७, जीवा. ३/७८ इसका नाम नादी भी था। नादी नाम से अभिहित नंदी मृदंग होने वाली बंशी में कितने रन्ध्र होते थे, इसका आकार-ढोलक के सदृश अवनद्ध-वाद्य, जिसका उल्लेख कहीं प्राप्त नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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