Book Title: Jain Agam Vadya Kosh
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ जैन आगम वाद्य कोश विमर्श-जैनागमों के अतिरिक्त 'किणित' शब्द का चिकनी मिट्टी या धातु की बनाई जाती हैं। इस उल्लेख वाद्य के अर्थ में वेदों एवं संगीत ग्रन्थों में वाद्य रूपी घड़े का पेट बड़ा, गर्दन लम्बी एवं मुंह प्राप्त नहीं होता। व्यवहार भाष्य ४/३ टी. पृ. संकुचित होता है। २१ में इसे “वध के समय नगर के मध्य बजाए विवरण-इस वाद्य को दो प्रकार से बजाया जाता जाने वाला वाद्य" कहा है। लगता है किणित वाद्य है। पहले प्रकार में घट को अपनी गोद में सीधा का नाम प्रयोग के आधार पर रखा गया। इसीलिए रखकर हाथ की हथेली से उसका मुख बन्द करते प्रस्तुत शब्द को ढोल का पर्याय माना गया। तथा खोलते हैं, जिससे घट के भीतर व्याप्त वायु पर दबाव पड़ता है और उसमें गंभीर ध्वनि उत्पन्न किरिकिरिय (किरिकिरिय) आ. चू. ११/३ होती है। यह ध्वनि तबला के डग्गी अथवा ढोलक किरिकिरिय, किरिकिट्टक, शुक्तिवाद्य। के वाम मुख के अनुरूप होती है। दाहिने हाथ की उंगलियों से अथवा धातु की किसी कठोर वस्तु आकार-सर्पाकार। को चुटकी में पकड़ कर घट पर प्रहार करते हैं, विवरण-यह ८ सेन्टीमीटर से अधिक चौड़ा तथा जिससे ताल-वाद्यों के दाहिने मुख की ध्वनि का एक मीटर से कुछ ज्यादा लम्बा एक घनवाद्य है। भास होता है। दक्षिण भारत में इसे बजाने के इसे कांसे अथवा लोहे से बनाया जाता है. जिसमें लिए वादक अपनी कमीज उतारकर जमीन पर एक सिरे की शक्ल सांप के फन जैसी होती है। बैठता है। घड़े का मुंह वादक के पेट से लगा इसके संपूर्ण शरीर में एक-एक अंगुल दूरी पर रहता है तथा घड़ा उसकी गोद में रखा रहता है। आधे यव प्रमाण उठी हुई रेखाएं होती हैं। एक इसे मंह पर नहीं बजाया जाता। घटम-वादक घडे लोह कोण से इन रेखाओं का आड़ा-तिरछा स्पर्श के मंह के सामने स्थित अपने पेट का कौशलपूर्ण करते हुए वादन किया जाता है। इसमें से किरकिर, उपयोग करके घटम से विविध ध्वनियों को उत्पन्न किरकिर की ध्वनि उत्पन्न होती है। कर सकता है। कर्नाटक के १३ शताब्दी के अनेक हुइसल मंदिरों इस प्रकार के वादन से दक्षिणी मृदंग के सभी में किरिकिट्टक वादक की अद्भुत प्रतिमाएं देखी जा बोल बजाये जाते है। दक्षिणी संगीत की सकती हैं। संगोष्ठियों में कभी-कभी ताल-वाद्य गोष्ठी का भी सारंगदेव ने संगीत-रत्नाकर ६/१२०० में लोक आयोजन होता है जिसमें मृदंगम्, मंजीरा (खंजरी) प्रचलित वाद्य किरिकिट्टक को ही शुक्तिवाद्य कहा तथा घटम् (घट) तीनों के वादक क्रमशः एक-दूसरे है। कबीलाई एवं लोक-नृत्यों में इस वाद्य का के बाद वादन करते है। तथा कठिन एवं द्रुत गति विशेष उपयोग किया जाता है। के बोलों का चमत्कार दिखाते हैं। दक्षिणी शास्त्रीय (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य- संगीत रत्नाकर) कण्ठ संगीत के साथ संगति में भी प्रायः घट का प्रयोग होता है। उत्तर भारत में इस वाद्य को लोक वाद्य की श्रेणी कुंभा (कुम्भा) राज. ७७ में और दक्षिण भारत में घटम् के नाम से शास्त्रीय कुंभ, घड़ा, मटकी, कलश वाद्यों में गिना जाता है। आकार-लोक संगीत में इस वाद्य की किसमें, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66