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जैन आगम वाद्य कोश
अंगूठा प्रवेश के योग्य छिद्र रहता है तथा दो पांच मुख बनाये जाते थे। इसमें बीच का एक टुकड़ों में चार अंगुलियां प्रवेश कर सकें, इतना मुख बड़ा तथा शेष मुख उससे कुछ छोटे आकार बड़ा छेद रहता है।
के होते थे। इस प्रकार का एक पंचमखी घट आज भिन्न-भिन्न लयों के प्रदर्शन के लिए भक्ति संगीत भी मद्रास म्यूजियम में रखा है। इसके वादन की तथा कुछ नृत्यों में इसका प्रयोग होता है। विधि का उल्लेख बहुत स्पष्ट प्राप्त नहीं होता। राजस्थान में करताल तन्दूरा और एकतारा के (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-भारतीय संगीत साथ प्रयोग की जाती है। महाराष्ट्र में एक विशेष वाद्य) प्रकार की करताल होती है जिसे चिम्पड़ी कहते हैं। जो प्रातःकालीन चारण (वासुदेव) के हाथ में
किणिय, किणित (किणित) राज. ७७ देखी जा सकती है।
जम्बू.३/३७ करताल वादन में तीव्रता और विचित्रता के लिए लकड़ी की कंघी और अनाज फटकने वाले सूप को
ढोल ढक भी दाने के साथ प्रयोग में लाते हैं।
आकार-सामान्यतः बेलनाकार। विवरण-सम्पूर्ण भारत में पाए जाने वाला यह वाद्य
बेलनाकार से लेकर पीपे सदृश तक होता है। जो कलसिया (कलशिका) राज. ७७
अन्दर से पोला एवं दोनों ओर चमड़े से मढ़ा कलश, पंचमुख वाद्य, त्रिमुख वाद्य।
रहता है। इसे लोहे की सीधी और चपटी परतों आकार-कलश जैसा।
को आपस में जोड़कर बनाते हैं। इन परतों को जोड़ने के लिए लोहे और तांबे की कीलें बारीबारी से प्रयोग की जाती हैं। इस वाद्य पर बकरे की खाल मढ़ी रहती है। वाद्य को कसने-मढ़ने के लिए कुण्डल अथवा गजरे का प्रयोग किया जाता है। इसे कसने के लिए डोरी का प्रयोग किया जाता है, जिसमें पीपल के छल्ले पड़े होते हैं। इसका नर भाग डंडी के द्वारा. मादा भाग हाथ से बजाया जाता है। शायद ही ऐसा कोई प्रान्त हो जहां ढोल का कोई न कोई रूप प्रचलित न हो। ढोल मुख्य रूप से त्यौहारों के अवसर पर बजाया जाता है। यह नृत्य मंडलियों में भी संगति करने के प्रयोग में लाया जाता है।
प्राचीन समय में खतरे का सामना करने एवं वध के विवरण-इस वाद्य का मुंह चमड़े से मढ़ा होता था, समय नगर के मध्य में इसका वादन किया जाता जो एकमुखी से लेकर पंचमुखी तक होता था, था। नेपाल एवं अनेक आदिवासी क्षेत्रों में आज भी जिसमें घट के मुख के स्थान पर दो, तीन अथवा पशुवध के अवसर पर इसे बजाया जाता है।
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