Book Title: Jain Agam Vadya Kosh
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 23
________________ १२ जैन आगम वाद्य कोश कड़ा रहता था। इस दंड की लम्बाई आठ अंगुल हिलाकर इन धुंघरुओं से झन-झनाहट की ध्वनि होती थी। इसके ऊपरी सिरे पर कमल के फल निकालते हैं और उसी के साथ गाते हैं। इस का आकार बनाकर गरुड़, हनुमान अथवा अन्य प्रकार के धुंघरु गाय और बैलों के गले में भी किसी इष्ट देवता की मूर्ति बना दी जाती थी, बांधे जाते हैं। निचला सिरा, जो मुख्य घंटा के भीतर रहता था कछ लोग तबला-वादन के समय एक हाथ में तथा जहां कड़ा बना रहता था वहा चार से छह घंघरू बांधकर इस तरह वादन करते हैं. मानों दो अंगुल तक लम्बा एक लोहे का आंकड़ा लटका व्यक्ति अलग-अलग बजा रहे हों। छोटे आकार दिया जाता था जिसके निचले सिरे पर एक गोल के चांदी के घंघरुओं से पैरों का जो जेवर बनाया दोलक रहता था। जब घण्टा हाथ से हिलाया जाता है, उसे पायल, पायजेब या पैजनियां कहते जाता था तब वह दोलक घण्टा के दोनों भागों पर हैं। धुंघरु के बिना किसी भी नत्य की कल्पना चोट करता था जिसकी मधुर ध्वनि वातावरण में नहीं की जा सकती। सात्त्विक भाव भर देती थी। प्रायः आज भी सभी मंदिरों में घंटा लगा रहता है, जिसे भक्तजन चित्तवीणा (चित्रवीणा) राज. ७७, ज्ञाता.१७/२२ मंदिर में प्रवेश करते समय बजाते हैं। सप्ततंत्री वीणा, चित्रा वीणा, रबाब आकार-अंगुलियों से बजाये जाने वाली सप्ततंत्रीय घंटिया (घण्टिका) पज्जो. ७४, राज. १७,१८, वीणा, जो देखने में स्वर-मंडल वीणा की भांति जीवा. ३/३०५, प्रश्न. १०/१४ होती है। घर्घरिका, घंटिका, क्षुद्रघंटा, घुघरु। विवरण-महर्षि भरत के समय से पहले तथा बाद आकार-किसी भी धातु की गोल घंटिया, जिनके में निर्मित गुफाओं, मंदिरों तथा स्तूपों आदि की अन्दर छोटी काली मिर्च के बराबर लोहे के टुकड़ें मूर्तियों में चित्रित वाद्य-यंत्रों को देखने से ऐसा या छोटे पत्थर के टुकड़ें रहते है। इनका आकार पता चलता है कि उस समय चार-पांच प्रकार की अंगूर से लेकर बेर तक का होता है। वीणाओं का चित्रण ही विशेष रूप से किया गया विवरण-प्राचीन तथा मध्यकाल में इन धुंघरुओं के है, महर्षि भरत ने विपंची तथा चित्रा वीणाओं को नाम क्षुद्रघण्टिका, घर्घरिका, मर्मरा, धुंधरा आदि प्रमुख माना है। इसलिए उस काल में निर्मित प्रचलित थे। इन्हें बनाने के लिए लोहा, कांसा, प्रस्तर मूर्तियों में चित्रित वीणाओं में सर्वाधिक पीतल, फूल इत्यादि धातुओं का प्रयोग होता था। विपंची तथा चित्रा के दर्शन किये जा सकते हैं। घोड़े अथवा बैल के गले में डालने वाले धुंधरु बड़े चित्रा के सात तारों को किस प्रकार मिलाया जाता होते हैं तथा नृत्य में पहने जाने वाले धुंघरु छोटे था, यह स्पष्ट पता नहीं चलता। होते हैं जिन्हें मालाकार पिरो कर पैरों में पहनते हैं। जिवा ती हा चित्रा वीणा का प्रचार किन्नरी तथा एकतंत्री वीणा क बड़े गोलाकार धुंघरु जो चमड़े की पट्टी पर बंधे के कारण लगभग सातवीं शताब्दी से तेरहवीं रहते हैं। इनको शरीर पर पेटी की तरह बांधते हैं। शताब्दी तक मंद पड़ता गया, जो लगभग चौदहवीं राजस्थान में इनका प्रयोग भैरों जी के भोपाओं शताब्दी के आस-पास से रबाब के नाम से फिर द्वारा होता है जो शरीर के निचले भाग को सामने आई और सेन वंशजों के द्वारा अपनाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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