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जैन आगम वाद्य कोश
झांझ, झालर और मंजीरा का अलग-अलग उल्लेख किया है, जिससे यह पता चलता है कि ये तीनों वाद्य परस्पर भिन्न थे। राजप्रश्नीय सूत्र ७७ में भी झल्लरि, झांझ के बाद कांस्यताल शब्द का प्रयोग किया है, जो कांस्यताल को झांझ और झल्लर से पृथक् करता है।
(विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य- संगीत विशारद, संगीत सार, संगीत दामोदर)
कच्छभी (कच्छपी) राज. ७७, जीवा. ३/५८८, जम्बू. ३/३१, ज्ञाता. १७/२२ कच्छपी वीणा
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आकार - इस वाद्य का आकार फूले हुए कछुए की पीठ की तरह होता है। इसलिए इसको कच्छपी वीणा कहते हैं। इसके खोखले पेट पर चमड़ा मढ़ा होता है, जो ग्रीवा तक जाता है। कम लम्बाई वाले दंड के ऊपर एक अर्धचन्द्राकार मेरु लगा होता है, जिस पर होकर पांच तार दंड के दूसरे सिरे पर लगी खूंटी तक जाते हैं।
विवरण - बिना पर्दे एवं छोटी गर्दन वाली वीणाओं में सबसे प्राचीन कच्छपी वीणा थी, जिसे खींच कर बजाया जाता था। कुछ विद्वानों ने कछुवाबीन अथवा कछुआ के नाम से एक तत वाद्य का वर्णन किया है, जो प्राचीन कच्छपी वीणा से सर्वथा भिन्न सितार का ही एक भेद है।
प्राचीन गुफाओं, स्तूपों, मंदिरों आदि की मूर्तियों में चित्रित किये गये वाद्यों में कच्छपी वीणा के दर्शन होते हैं। आबानेर स्थित हरसत माता के मंदिर में संगीतज्ञा की एक मूर्ति के हाथ में स्थित वीणा प्राचीन कच्छपी वीणा की स्मृति को तरोताजा कर देती है।
विमर्श - निसि. १७/१३८ में कच्छपी को घन वाद्य के अन्तर्गत लिया है। निसि के टीकाकार ने "चतुरंगुलो दीहो वा वृत्ताकृति" कहकर घन वाद्य ही स्वीकार किया है। किंतु ज्ञाता. १७/३२, राज. ७७ में कच्छपी को वीणा का वाचक माना है। भरत नाट्य शास्त्र ३३ / १५ में महर्षि भरत ने ततवाद्यों के अंग तथा प्रत्यंग वाद्यों के विवेचन में कच्छपी वीणा को प्रत्यंग वाद्य कहा है। श्री मनमोहन घोष, सुधाकलश एवं विद्याविलासी पंडित आदि संगीतज्ञों ने कच्छपी को वीणा का ही वाचक माना है। उक्त विमर्श से ऐसा लगता है कि प्राचीन काल में कच्छपी नाम के दो वाद्य थे जो तत वाद्य के रूप में स्वीकृत थे। आधुनिक संगीतज्ञों ने कच्छपी को वीणा का वाचक माना है। इसलिए यहां कच्छपी को वीणा के अर्थ में
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