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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
धारण करता है।।४।।
( श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक , चौथा अधिकार पृष्ठ ८१) * भिन्न ज्ञानोपलब्धि से देह और आत्मा का भेद
देहात्मनों: सदा भेदो भिन्नज्ञानोपलम्भतः।। इन्द्रियैज्ञयिते देहो नूनमात्मा स्वसंविदा ।।४८।। भिन्न-भिन्न ज्ञानों से उपलब्ध होने के कारण शरीर और आत्मा का सदा परस्पर भेद है। शरीर, इन्द्रियों से- इन्द्रिय ज्ञान से जानने में आता है, आत्मा वास्तव में स्वसंवेदन ज्ञान से जानने में आता है।।५।। ( श्री अमितगति आचार्य, योगसार प्राभृत, चूलिका अधिकार, श्लोक ४८) * एक इच्छा तो विषय ग्रहण की है, उससे यह देखना जानना चाहता है। जैसे-वर्ण देखने की , राग सुनने की , अव्यक्त को जानने की इत्यादी इच्छा होती है। वहाँ अन्य कोई पीड़ा नहीं है, परन्तु जब तक देखता जानता नहीं है तब तक महा व्याकुल होता है। इस इच्छा का नाम विषय है।।६।।
(श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, तिसरा अधिकार, पृष्ठ ७०) * वहाँ ज्ञान-दर्शन की प्रवृत्ति इन्द्रिय-मन के द्वारा होती है, इसलिये यह मानता है कि यह त्वचा, जीभ, नासिका, नेत्र, कान, मन मेरे अंग हैं। इनके द्वारा में देखता-जानता हूँ; ऐसी मान्यता से इन्द्रियों में प्रीति पायी जाती है। तथा मोह के आवेश से उन इन्द्रियों के द्वारा विषय ग्रहण करने की इच्छा होती है। और उन विषयों का ग्रहण होने पर उस इच्छा के मिटने पर निराकुल होता है तब आनन्द मानता है,। जैसे कुत्ता हड्डी चबाता है उससे अपना लोहू निकले उसका स्वाद लेकर ऐसा मानता है कि यह हड्डियों का स्वाद है। उसी प्रकार यह जीव विषयों को जानता है, उससे अपना ज्ञान
* मैं पर के तन्मय होऊँ तो पर को जानू
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