Book Title: Indriya Gyan
Author(s): Sandhyaben, Nilamben
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 281
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है इति जाने तो नृत्य ज्ञान में आ जावे , तो ज्ञान रूपी हो जाये।।५२० ।। (श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, अधिकार तीसरा, पू. गुरुदेव श्री का प्रवचन, श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. ३२, पृष्ठ २२९-२३०) * 'मैंने राग-स्वर सुना'-ऐसा वह ( अज्ञानी) कहता है। राग-शब्द जड़ है, निंदा और प्रशंसा के शब्द जड़ हैं इसलिए राग को (शब्द को) नहीं सुना है परन्तु उस समय की स्व-परप्रकाशक शक्ति-सामर्थ्य को जाना है। शब्द को छुए बिना शब्द के सामने देखे बिना अपने सामर्थ्य से जानता है। वह स्वर अथवा राग ज्ञान में आवे तो ज्ञान जड़ हो जाये और ज्ञान स्वर में जाये तो ज्ञान और स्वर एक हो जाये ! ज्ञान स्वर को जाने तो ज्ञान का अस्तित्व ही नहीं रहता है। स्वपरप्रकाशक सामर्थ्य अपना है-वह निश्चय से है। पर को जानता हूँ ऐसा कहना–व्यवहार है। ये निंदा सुनी', मेरा यश गान हो रहा हैउसको मैं सुनता हूँ'-ऐसा अज्ञानी कहता है। उस समय तेरा अस्तित्व है या नहीं ? कि उन्हीं के ( निंदा प्रशंसा के) अस्तित्व को तू सुनता है ? अरे! प्रभु! तू तेरी ज्ञानपर्याय को (ही) जान रहा है, अनादि अनन्त ज्ञानस्वरूप है, उसकी ज्ञानपर्याय का प्रवर्तन हो रहा है ( उसमें जाननहार आत्मा जानने में आ रहा है)-वैसा नहीं मानकर-पर को मैं जानता हूँ-ऐसा मानना वो अधर्म है।।५२१ ।। (श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, तीसरा अधिकार, पू. गुरुदेव श्री का प्रवचन, श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. ३२, पृष्ठ २३०) * पंडित जी ने कैसी शैली से विषय रखा है || वस्तु ज्ञानस्वरूप है। स्व के सामर्थ्य को नहीं मानता हुआ ' मैंने शब्द सुना'-ऐसा मानना सो मिथ्या-अभिप्राय है। 'मैंने फूल सूंघा-ऐसा मानता है।- फूल तो जड़ है, अजीव-मूर्त है-उसकी पर्याय मूर्त है। आत्मा का ज्ञान मूर्त को २४७ *प्रथम आत्मा को जान* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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