Book Title: Indriya Gyan
Author(s): Sandhyaben, Nilamben
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 298
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है जावे वह उपयोग ही नहीं।।५७९ ।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ९२, बोल ४६५) * ( अज्ञानी का) परलक्षी उपयोग में ( ज्ञान में ) राग को भिन्न जानने की ताकत ही नहीं। परलक्षी उपयोग तो अचेतन ही गिनने में आता है।।५८०।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ९३, बोल ४७२) * जैसे उधर के पंडितों को लगता कि हम सब जानते हैं, ऐसे वांचनकार हो जावे और उघाड़ हो जावे तो उसमें (लोग) अटक जाते है कि हम समझते हैं, तो वह उघाड़ रुकने का साधन हो जाता है। पडितों का संसार-शास्त्र कहा है ना!।।५८१।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ९७, बोल ४८८) * सागरों तक बारह अंग का अभ्यास करते हैं, लेकिन इस परलक्षी ज्ञान में तो नुकशान ही नुकशान है। जो उपयोग बाहर में जावे तो दुःख होवे ही। स्व उपयोग में ही सुख है।।५८२।। ( श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ९७, बोल ४९२) * रुचि होवे तो प्रवृत्ति में भी अपने कार्य में विघ्न नहीं आता। दूसरे से तो कुछ लेना नहीं है, और ( स्वयं) सुख का तो धाम है तो उपयोग रहित चक्षु की माफीक प्रवृत्ति में दिखे और उपयोग तो इधर ( अन्दर में ) काम करता होवे।।५८३।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ९९, बोल ४९८ ) * वर्तमान अंश में ही सब रमत है। ओ अन्दर में देखेगा तो (अनन्त) शक्तियाँ दिखेंगी और बहिर्मुख होगा तो संसार दिखेगा। इतना सा ( कोई २६४ * इन्द्रियज्ञान की रुचि सम्यग्दर्शन में बाधक है* Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 296 297 298 299 300