Book Title: Indriya Gyan
Author(s): Sandhyaben, Nilamben
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 297
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है रहता है, बस यही बिमारी है, इसको मिटानी है।।५७३।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ७८, बोल ३८१) * उपयोग बाहर में जाता है तो अपना अनुभव में अंतराय आती है।।५७४।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश , भाग ३, पृष्ठ ८८, बोल ४४१) * ( उघाड़ पर जिसकी दृष्टि है उसको) क्षयोपशम बढ़ता जाता है, तो साथ-साथ अभिमान भी बढ़ता जाता है।।५७५ ।।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ८९, बोल ४४८) * विचार और धारणा में वस्तु को पकड़ने का सामर्थ्य ही नहीं। अज्ञानी वस्तु को नहीं पकड़ते हैं। विचार में तो वस्तु परोक्ष और दूर रह जाती है।।५७६ ।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश , भाग ३, पृष्ठ ९०, बोल ४५१) * सोचते रहने से तो जागृति नहीं होती। ग्रहण करने से ही जागति होती है। सोचने में तो वस्तु परोक्ष रहती है और ग्रहण करने में वस्तु प्रत्यक्ष होती है। सुनते रहने से और सोचते रहने से तो वस्तु की प्राप्ति नहीं होती। ग्रहण करने का ही अभ्यास शुरू होना चाहिए।।५७७।।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ९०, बोल ४५४ ) * विकल्पात्मक निर्णय छूटकर, स्व-आश्रित ज्ञान उघड़ता है। जो ज्ञान सुख को देता है-वही ज्ञान है।।५७८ ।।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश , भाग ३, पृष्ठ ९२, बोल ४६२) * पर सन्मुख उपयोग होता है-वह आत्मा का उपयोग ही नहीं है, अनउपयोग है। आत्मा का उपयोग तो पर में जाता ही नहीं-और पर में २६३ *इन्द्रियज्ञान आत्मा को तिरोभूत करके प्रगट होता है* Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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