________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है * (इन्द्रियज्ञान) बंध का हेतुरुप होने से विरुध्द, बंध का कार्यरूप होने से कर्मजन्य, आत्मा का धर्म नहीं होने से अश्रेयरुप तथा कलुषित होने से स्वयं अशुचि है। (श्री पंचाध्यायी उत्तरार्ध , गाथा 283) * जीव को जितना वैषयिक (इन्द्रियजन्य) ज्ञान है वह सभी पौदगलिक मानने में आया है और दूसरा जो ज्ञान विषयों से परावृत (पराङ्मुख) है - इन्द्रियों की सहायता बिना का है-(अतीन्द्रिय है)- वह सभी आत्मीय है।। (श्री योगसार जी प्राभृत, चूलिका अधिकार, गाथा 76, श्री अमितगति आचार्य) * भिन्न-भिन्न ज्ञानों से उपलब्ध होने के कारण शरीर और आत्मा में सदा परस्पर भेद है! ( भिन्नता है)। शरीर इन्द्रियों से-इन्द्रियज्ञान से-जानने में आता है और आत्मा वास्तव में स्वसंवेदन ज्ञान से जानने में आता है।। (श्री योगसार प्राभृत, श्री अमितगति आचार्य, चूलिका अधिकार, गाथा 48) * आत्मा वास्तव में पर को जानता ही नहीं है तो फिर पर को जानने के लिए उपयोग लगाना, ये बात ही कहाँ रही? आत्मा आत्मा को जानता है,-ऐसा कहना वह भी भेद होने से व्यवहार है, वास्तव में ज्ञायक तो ज्ञायक ही है वह निश्चय है, जैनदर्शन बहुत सूक्ष्म है।। (गुजराती आत्मधर्म , मार्च 1981 में से, पू. गुरुदेव श्री के वचनामृत) Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com