Book Title: Indriya Gyan
Author(s): Sandhyaben, Nilamben
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 292
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है * तीर्थंकर योग और वाणी मिली तो ठीक है। भविष्य में भी यह भाव से मिलेगी, ऐसी उसमें होश आती है; तो उससे कैसे छुटेगा? लाभ मानते है तो कैसे छोड़ेगा? उससे (ऐसा भाव से ) नुकशान ही है, लाभ नहीं, लाभ तो मेरे से ही है-वर्तमान से ही मेरे से लाभ है-ऐसा जोर नहीं होवे तो पर में अटक जायेगा।।५५३ ।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ १४ , बोल ६२) * विचार मंथन भी थक जाय, शुन्य हो जाय, तब अनुभव होता है! मंथन भी तो आकुलता है। एकदम तीव्र धगशसे अन्दर में उतर जाना चाहिए।।५५४ ।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश , भाग ३, पृष्ठ १७, बोल ७२) * बस एक ही बात है कि 'मैं त्रिकाली हूँ' ऐसे जमे रहना चाहिए पर्याय होने वाली हो- योग्यतानुसार हो जाती है, मैं उसमें नहीं जाता हूँ। क्षयोपशम हो, न हो, याद रहवे नहीं रहवे लेकिन असंख्य प्रदेश में प्रदेश-प्रदेश में व्यापक हो जाना चाहिए।।५५५ ।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ १९, बोल ८१) * कोई एकान्त वेदान्त में खेंच जावे नहीं, इसलिये दोनों बात बताई है। पर्याय दूसरे में नहीं होती, कार्य तो पर्याय में ही होता है, ऐसा कहे तो वहाँ (पर्याय की रूचि वाले) चोंट जाते हैं-ऐसा तो है न! ऐसा तो होना चाहिए न! अरे भाई! क्या होना चाहिए ? छोड़ दे सब बातें जानने की! मैं तो त्रिकाली ही हूँ। उत्पाद-व्यय कुछ मेरे में है ही नहीं ।।५५६ ।। ( श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश , भाग ३, पृष्ठ २०, बोल ८८) * प्रश्न : शुरूआत वाले को, विचार मैं बैठते हैं तो मैं ऐसा हूँ। मैं ऐसा हूँ ऐसा करते हैं, तो घंटा-आधा घंटा में थाक लगता है, तो क्यों ? २५८ * इन्द्रियज्ञान दुःखरूप है, दुःख का कारण है Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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