Book Title: Indriya Gyan
Author(s): Sandhyaben, Nilamben
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 291
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है ( बहिर्मुखीभाव, कार्यसिद्धि के लिए) बेकार हैं। ओ हो तो भले हो, लेकिन उसका खेद होना चाहिए, निषेध आना चाहिए।।५४७।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, बोल १५, पृष्ठ ६) * बहिर्मुख होने से ज्ञान खिलता नहीं; और अंतर्मुख होने से भीतर से ही केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। अपनी ओर ही देखने की बात है।।५४८।। ( श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, बोल ४१, पृष्ठ ११) * तीर्थंकर की दिव्य-ध्वनि से भी लाभ नहीं होता, तो फिर और किससे लाभ होता होगा ? वह (दिव्य-ध्वनि) भी अपने को छोड़कर एक ( भिन्न ) विषय ही है।।५४९ ।। । (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश , बोल ४८, पृष्ठ १२) * ज्ञान की पर्याय आती है अन्दर से; और ( अज्ञानी को) बाहर का लक्ष होने से दिखती है बाहर से आती है। इसलिए अज्ञानी को पर से ज्ञान होता है, ऐसा भ्रम हो जाता है।।५५० ।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, बोल ५८, पृष्ठ १४) * (द्रव्यलिंगी की भूल) द्रव्यलिंगी होकर ११ अंग तक पढ़ लेते हैं लेकिन त्रिकाली चैतन्य दल में अपनापना नहीं करते वो ही भूल है दूसरी कोई भूल नहीं है।।५५१ ।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश , बोल ६०, पृष्ठ १४) * पू. गुरुदेवश्री ने शास्त्र पढ़ते समय कहा जैसे व्यापार में चोपड़े का (बही का) पन्ना फेरते हैं वैसे ये पन्ना है कोई फर्क नहीं; अगर अन्दर की (ध्रुव चैतन्य की) दृष्टि नहीं; तो दोनों समान हैं ।।५५२ ।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ १४, बोल ६१) २५७ *इन्द्रियज्ञान अशुचि है Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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