Book Title: Indriya Gyan
Author(s): Sandhyaben, Nilamben
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 284
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है आवें इसलिए उन चीजों को जुटाना चाहता है (मिलाना चाहता है) पर को देखना चाहता है। पर को जानना चाहता है। परन्तु अपने को जानना नहीं चाहता। अपने को भिन्न नहीं मानता हुआ ज्ञेयमिश्रित ज्ञान द्वारा उन चीजों की ( परवस्तुओं की) मुख्यता भासती है। मैं जाननहार-देखनहार हूँ'-ऐसा नहीं भासता-पूरा भगवान आत्मा रह जाता है ( दृष्टि में नहीं आता है )।।५२६ ।। (श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, तीसरा अधिकार, पू. गुरुदेव श्री का प्रवचन, श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. ३२, पृष्ठ २३२-२३३) * इस सब का सार यह है कि तेरा पर को जानने का रस्ता और पर में स्वाद मानकर-राग का स्वाद लेने का रस्ता-शांति का नहीं है। इसलिए तू दुखी हो रहा है। विषयों का स्वाद नहीं है और विषयों का ज्ञान नहीं है। परन्तु राग का स्वाद है और ज्ञान का ज्ञान है। विषय पर हैं राग क्षणिक है, तेरे स्वभाव में नहीं है और पर्याय ज्ञानस्वभावी आत्मा की है। इस प्रकार रागरहित नित्य ज्ञानस्वभावी आत्मा की दृष्टि हो। ऐसा समझे तो निमित्तबुद्धि और रागबुद्धि छूटकर स्वभावबुद्धि होवेधर्म होवे यह समझाने के लिए यह बात करी है।।५२७ ।। ( श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक , तीसरा अधिकार, पू. गुरुदेव श्री का प्रवचन, श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. ३२, पृष्ठ २३४ ) * प्रश्न : ज्ञान ज्ञान को ही जानता है तो जगत की दूसरी चीजों की क्या जरूरत है ? समाधान : ज्ञान के कारण जगत की वस्तुएं नहीं है। और जगत की वस्तुओं के कारण ज्ञान नहीं है। ज्ञान पर को जानता है-ऐसा कहना वो असद्भूत उपचार है। वास्त्व में यदि ज्ञान पर को जाने तो २५० * इन्द्रियज्ञान ज्ञान नहीं है, ज्ञेय है Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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