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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
की आराधना में तत्परता सो नियम है । जो आत्मा को आत्मा में आत्मा से धारण कर रखता है- टिका रखता है- जोड़ रखता है वह अध्यात्म है और वह अध्यात्म सो तप है । समस्त बाह्य क्रियाकांड के आडम्बर का परित्याग जिसका लक्षण है ऐसी अंतःक्रिया के अधिकरणभूत आत्मा को - कि जिसका स्वरूप अवधि रहित तीनों काल ( अनादि काल से अनन्त काल तक) निरूपाधिक है उसे जो जीव जानता है, उस जीव की परिणतिविशेष वह स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान है।
ध्यान- ध्येय-ध्याता, ध्यान का फल आदि के विविध विकल्पों से विमुक्त (अर्थात् ऐसे विकल्पों से रहित), अंतर्मुखाकार ( अर्थात् अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसा ), समस्त इन्द्रियसमूह से अगोचर निरंजन - निज परमतत्त्व में अविचल स्थितिरूप ( ऐसा जो ध्यान ) वह निश्चयशुक्लध्यान है । इन सामग्री विशेषों सहित ( इस उपर्युक्त विशेष आंतरिक साधन सामग्री सहित) अखण्ड अद्वैत परम चैतन्यमय आत्मा को जो परमसंयमी नित्य ध्याता है, उसे वास्तव में परम समाधि है ।। २६९।।
( श्री नियमसार जी, पद्मप्रभमलधारिदेव, गाथा १२३ टीका )
* अन्वयार्थ :- जो सर्व सावद्य में विरत है, जो तीन गुप्ति वाला है और जिसने इन्द्रियों को बन्द ( निरुद्ध) किया है, उसे सामायिक स्थायी है ऐसा केवली के शासन में कहा है।
* टीका :- यहाँ ( इस गाथा में ) जो सर्व सावद्य व्यापार से रहित है, जो त्रिगुप्ति द्वारा गुप्त है तथा जो समस्त इन्द्रियों के व्यापार से विमुख है, उस मुनि को सामायिकव्रत स्थायी है ऐसा कहा है।
यहाँ (इस लोक में ) जो एकेन्द्रियादि प्राणीसमूह को क्लेश के हेतुभूत समस्त सावद्य के व्यासंग से विमुक्त है, प्रशस्त - अप्रशस्त समस्त काय - वचन-मन के व्यापार के अभाव के कारण त्रिगुप्त (तीन गुप्ति वाला) है
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* एक भावक भाव, एक ज्ञेय का भाव
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उनसे अलग मैं ज्ञायकभाव हूँ*
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