Book Title: Indriya Gyan
Author(s): Sandhyaben, Nilamben
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 277
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है अरे! इसकी प्रभुता, इसकी चमत्कृति शक्तियाँ ! और चमत्कारिक इसकी पर्यायें!!! इनकी इसको खबर नहीं है। ऐसा जो भगवान आत्मा उसकी गहराई की क्या बात करना ! पाताल कुएँ में जैसे पानी गहराई में से निकलकर बाहर आता है वैसे ही लक्ष्य के कारण से ( आत्मा के लक्ष से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उस ज्ञान के पाताल कुएँ में से आनन्द का फुव्वारा छूटता है ।। ५९० ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १४४ - १४५, बोल ५१६ ) * जिस ज्ञान के साथ में आनन्द नहीं आवे वह ज्ञान ही नहीं है, परन्तु अज्ञान है।। ५११ ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १७३, बोल ६३० ) * ज्ञान, जगत में सर्व जीवों को स्व - अनुभव से नक्की है। जब स्वाश्रयी ज्ञान के द्वारा - अंतर्मुख ज्ञान के द्वारा आत्मा को जाने तब आत्मा को यथार्थपने जाना है - ऐसा कहने में आता है। परलक्ष वाले ज्ञान को तथा ग्यारह अंग के शास्त्र ज्ञान को आत्मा का ज्ञान नहीं कहा है। जिसका लक्षण (स्वरूप) नक्की करना है उस लक्ष्यरूप आत्मा को ही अवलम्बन लेकर जाने वही ज्ञान है । निमित्त - राग - व्यवहार का अवलम्बन लेकर जाने वह ज्ञान नहीं है। आचार्यदेव को परवस्तु का जानपना प्रसिद्ध नहीं करना है। जो स्वलक्षणरूप ज्ञान के द्वारा आत्मा को जाने उसकी प्रसिद्धि सम्यक् है । देखो, इस प्रकार से भी अंतर्मुख होने की बात है ।। ५१२ ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १७७, बोल ६४० ) जिसके द्वारा ज्ञात हो उसे लक्षण कहते हैं । ज्ञान के द्वारा आत्मा ज्ञात होता है, इसलिए ज्ञान द्वारा आत्मा का निर्णय होता है। पुण्य-पापादि, शरीर आदि ज्ञान के द्वारा नक्की करने योग्य नहीं हैं; परन्तु ज्ञान के द्वारा आत्मा नक्की करने योग्य है। ज्ञान लक्षण पुण्य-पाप का, कि देव-गुरु २४३ ज्ञानी ऐसा मानता है कि मैं जीभ से नहीं चाखता हूँ* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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