Book Title: Indriya Gyan
Author(s): Sandhyaben, Nilamben
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 275
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है परलक्षी ज्ञान स्व को नहीं जान सकता है। इसलिए उसको भी श्रुत की तरह उपाधि कहा है। जैसे सत् - शास्त्र वह ज्ञान नहीं है, अतिरिक्त चीज है-उपाधि है वैसे ही इस श्रुत से होने वाला ज्ञान भी अतिरिक्त चीज है- उपाधि है । आहाहा ! क्या वीतराग की शैली है। परलक्षी ज्ञान को भी श्रुत की तरह उपाधि कहते हैं । स्वज्ञान रूप ज्ञप्ति क्रिया से आत्मा जानने में आता है। भगवान की वाणी से आत्मा जानने में नहीं आता है।।५०४।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १२७, बोल ४६० ) * प्रश्न : तत्व का स्वरूप बराबर ज्ञात होने पर भी जीव क्या कारण से अटका रहता है ? उत्तर : तत्व को बरोबर जानने पर भी परतरफ के भाव में गहरीगहरी रुचि रह जाती है, परलक्षी ज्ञान में संतोष हो जाता है अथवा समझ के अभिमान में अटक जाता है । बाहर की प्रसिद्धि के भाव में अटक जाता है। अन्दर रहने का भाव नहीं है। इसलिए अटक जाता है अथवा शुभ परिणाम में मिठास रह जाती है। ऐसे विशेष प्रकार की पात्रता के बिना जीव अनेक प्रकार से अटक जाते हैं । । ५०५ ।। ( श्री परमागमसार, पृष्ठ १३२ – १३३, बोल ४७७ ) * आत्मा का निर्विकल्प अनुभव करने का इच्छुक जीव प्रथम शुद्धनय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, परद्रव्य की ममता से रहित हूँ, ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण वस्तु हूँ - ऐसा निश्चय करता है । इस निर्णय में पाँच इन्द्रियों के विकल्प से दूर हुआ है और मन के विकल्प में आया है परन्तु यह मन के विकल्पों को भी छोड़ने को आया है। उससे आगे बढ़कर मन सम्बन्धी विकल्पों को शीघ्र ही छोड़कर निर्विकल्प होता है । । ५०६ ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १३५, बोल ४८५ ) २४१ 'ज्ञानी ऐसा मानता हैं कि मैं कान से नहीं सुनता हूँ* Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com

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