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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
ज्ञेयरूप है। और स्वयं ही अपना जाननेवाला होने से ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञाता है।
इस प्रकार ज्ञानमात्रभाव ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता-इन तीनों भावों से युक्त सामान्य-विशेष स्वरूप वस्तु है। ऐसा ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ' इस प्रकार अनुभव करने वाला पुरुष-ऐसा अनुभव करता है।।२७१।।
कलश २७१ के श्लोकार्थ पर प्रवचन 'यः अयं ज्ञानमात्रः भवः अहम् अस्मि सः ज्ञेय-ज्ञायमात्रः एव न ज्ञेयः' जो यह ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ, वह ज्ञेयों का ज्ञानमात्र ही नहीं जानना....।
देखो, क्या कहते हैं ? जो यह ज्ञानमात्र भाव में हूँ, वह छह द्रव्यों को जानने मात्र ही नहीं जानता। क्या कहा ? लोक में जितने द्रव्य हैंअनन्त सिद्ध और अनन्तानंत निगोद के जीव सहित जीव, अनन्तानंत पुद्गल, देह, मन, वाणी, कर्म इत्यादी और धर्म, अधर्म, आकाश, काल इस प्रकार छह द्रव्य उनके द्रव्य, गुण, पर्यायें- वह मेरे ज्ञेय और में उसका ज्ञायक-ऐसा नहीं जानना-ऐसा कहते है; उसका कर्त्तापना तो कहीं दूर रहा, यहाँ तो कहते हैं कि उसका (छह द्रव्यों का) जाननहारा मै हूँ-ऐसा नहीं जानना। गजब की बात है भाई! परद्रव्यों के साथ ज्ञेयज्ञायकपने का सम्बन्ध भी निश्चय से नहीं है, व्यवहार मात्र से ऐसा सम्बन्ध है। समझ में आया कुछ...? जैन तत्वज्ञान बहुत सूक्ष्म है भाई! यह व्यवहार रत्नत्रय का राग होता है न धर्मात्मा को ? इधर कहते हैं-भगवान आत्मा ज्ञायक और व्यवहार रत्नत्रय का राग उसका ज्ञेय-ऐसा वास्तव में है नहीं। बारहवीं गाथा में व्यवहार ‘जाना हुआ' प्रयोजनवान कहा-यह तो व्यवहार की बात है। निश्चय से तो स्वपर को प्रकाशने वाली अपनी ज्ञान की दशा ही अपना ज्ञेय
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* मैं पर को नहीं जानता हूँ
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