Book Title: Indriya Gyan
Author(s): Sandhyaben, Nilamben
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 269
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है * इन्द्रियज्ञान का जिसको रस चढ़ा है उसे अतीन्द्रियज्ञान नहीं होता।।४८७।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ ६८, बोल २५७) * परमात्मा फरमाते हैं कि प्रभु! तेरी ज्ञान की पर्याय में सदा स्वयं आत्मा स्वयं ही अनुभव में आता है। ज्ञान की प्रगट दशा में सर्व को भगवान आत्मा अनुभव में आता है। अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा अनुभव में आने पर भी तू उसको देखता नहीं है। कारण ? कि पर्यायबुद्धि के वश हो जाने से परद्रव्यों के साथ एकत्वबुद्धि से स्वद्रव्य को देख नहीं सकता।।४८८ ।। ( श्री परमागमसार, पृष्ठ ९२-९३, बोल ३५२) * (परसन्मुख ज्ञान में हुए परलक्ष छुड़ाने के लिए और अपना स्वरूपअस्तित्व वेद्य-वेदकपने जानने योग्य है, इस न्याय से) ज्ञेयज्ञायक सम्बन्धी भी जीव को भ्रान्ति रह रही है कि छह द्रव्य वह ज्ञेय और आत्मा उनका ज्ञायक है। परन्तु जीव से भिन्न पुद्गल आदि छह द्रव्य वह ज्ञेय और आत्मा उनका ज्ञायक है ऐसा निश्चय से नहीं है। अरे! राग वह ज्ञेय और आत्मा ज्ञायक, ऐसा भी ( पर सन्मुखपने) नहीं है। परद्रव्यों से लाभ तो नहीं है। परन्तु परद्रव्य ज्ञेय और उनका तू ज्ञायक हो ऐसा भी वास्तव में नहीं है। मैं जाननहार हूँ; मैं ही जानने योग्य हूँ मैं ही मेरे को जनाने हूँ। अपने अस्तित्व में जो है वही स्वज्ञेय है ऐसा परमार्थ बताकर पर तरफ का लक्ष छुड़ाया है।।४८९ ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १०३ , बोल ३८३) * अपनी अपेक्षा से दूसरे द्रव्य असत् हैं। स्वयं ही सत् है। स्वयं ही अपना ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञानरूप सत् है। इसलिए अपने सत् का ज्ञान २३५ *केवल निज शुद्धात्मा को जानते हैं इसलिए केवली है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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