Book Title: Indriya Gyan
Author(s): Sandhyaben, Nilamben
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 272
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है के लिए गुरु चाहिए। मस्तक पर टोकने वाला गुरु चाहिए।।४९५ ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ ११५ , बोल ४२१) * प्रभ! मैं समझता हूँ ऐसी समझदारी के अभिमान से दूर रहना अच्छा है। बाह्य प्रसिद्धि के भाव से- बाह्य प्रसिद्धि के प्रसंगों से दूर भागने में आत्मार्थी को लाभ है। तुझे जानकारी है इस कारण लोग मान-सम्मान-सत्कार करे तो भी इन प्रसंगो से आत्मार्थी को दूर भागना अच्छा है। ये मान-सम्मान के प्रसंग निःसार हैं, कुछ लाभ के नहीं है। एक आत्मस्वभाव की सारभूत एवं हितकारी है। इसलिए समझदारी, जानकारी के अभिमान से दूर भागकर आत्मसन्मुख ही झुकने जैसा है।।४१६ ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ ११५, बोल ४२२) * सदा अन्तरंग में चकचकाट ज्योति प्रकाशमान, अविनश्वर स्वतःसिद्ध तथा परमार्थसत् परम पदार्थ ऐसा भगवान ज्ञान स्वभाव है। उसके अवलम्बन से इन्द्रियों का जीतना होता है, उसे संत जितेन्द्रिय कहते हैं।।४९७।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ ११६ , बोल ४२४ ) * प्रश्न : आत्मा परोक्ष है तो कैसे ज्ञात हो ? उत्तर : आत्मा प्रत्यक्ष ही है! पर्याय अन्तर्मुख होवे तो आत्मा प्रत्यक्ष है ऐसा ज्ञात होता है। बहिर्मुख पर्याय वाले को आत्मा प्रत्यक्ष नहीं लगता है। प्रत्यक्ष दिखता नहीं है तो भी आत्मा प्रत्यक्ष ही है। उसके सन्मुख होकर देखे तो ज्ञात होता है।।४९८ ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ ११८ , बोल ४३२) २३८ * भिन्नाभावः नोद्रष्टाः* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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