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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
है-जिन को जीतना है, जीतना है अर्थात् उसके लक्ष को छोड़ना है। उसके द्वारा जानने का कार्य करे यह आत्मा का कार्य ही नहीं है।।४२४।। (श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंग ग्रहण बोल १ के ऊपर
पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से)
* शास्त्र का ज्ञान हुआ इन्द्रियों से; सुनकर, पढ़कर-ये शास्त्र का ज्ञान आत्मा का नहीं है। गजब बात है ने ?
इन्द्रियों द्वारा जानता है-वह आत्मा नहीं है, ज्ञायक नहीं है क्योंकि ज्ञायकस्वरूप तो स्वयं ही है, और ये इन्द्रियों द्वारा जाने तो ज्ञायक ही कहाँ रहा ? ।।४२५ ।। (श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंग ग्रहण बोल १ के ऊपर
पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से)
* सातवें और नौवें अधिकार में कहा है कि जैसे-जैसे शास्त्र का ज्ञान बढ़ता है, वैसे-वैसे ज्ञान विशेष होता है लेकिन यह परसम्बन्ध की अपेक्षा से बात है।
सामान्य से विशेष बलवान है ऐसा कहकर, कहा हैं कि जैसे-जैसे शास्त्र का विशेष ज्ञान होता है वह ज्ञान बलवान है, यह पर की अपेक्षा की बात है।
वहाँ सम्यक्दर्शन में ये ज्ञान बलवान और जोरदार होता है ऐसा नहीं है।।४२६ ।। (श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंग ग्रहण के बोल १ के ऊपर
__ पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से) * साक्षात् तीन लोक के नाथ समोशरण में विराजते हों वहाँ भी तू
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* पर को जाने ऐसा ज्ञायक का स्वरूप नहीं है।
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