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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
उसकी ज्ञान की वर्तमान प्रकट पर्याय का भी स्व-परप्रकाशक स्वभाव है। इसलिए उस पर्याय में समस्त जीवों को सदाकाल ज्ञायक जानने में आ रहा होने पर भी राग के वश हुए प्राणी उसे देख नहीं सकते। उसकी नजर ( दृष्टि) पर्याय के ऊपर और राग के ऊपर है इसलिए इस ज्ञायक को ही में जानता हूँ इसे खो देता है। अनादि बंध के-राग के वश पड़ा हुआ राग को देखता हैं। लेकिन मुझे मेरी ज्ञान की पर्याय में यह ज्ञायक ही दिख रहा है ( ज्ञायक ही जानने में आ रहा है) ऐसा देखता नहीं है। भले ने तूं ना पाड़ ( ना कह) कि मैं ( मुझे-ज्ञायक को) नहीं जानता फिर भी प्रभु! तेरी पर्याय में तू अभी जानने में आ रहा है। हों! गजब बात की है न ? ।।४१६ ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग १०, पृष्ठ ४६, पैराग्राफ ३) * यह जो जानने में आ रहा हैं (जाननहार ) उसको जानता नहीं है।
और पर को जानता हूँ ऐसी मिथ्याबुद्धि हो गई है। ( अर्थात् ) अकेलापर-प्रकाशक हूँ ऐसी बुद्धि हो गई है जो कि मिथ्या है।।४१७।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-१०, पृष्ठ ४७, पैराग्राफ १) * आहा! एक बार तो ऐसा ( अन्दर में ) आया था कि (मानों) ज्ञान की पर्याय जो है एक ही वस्तु है। दूसरी कोई चीज ही नहीं है। एक ( ज्ञान की) पर्याय का अस्तित्व ये सारे लोकालोक का अस्तित्व है। एक समय की जानने देखने की स्वपरप्रकाशक पर्याय उसमें आत्मद्रव्य उसके ( अनंता) गुण उसकी तीनों काल की पर्याय तथा छह द्रव्यों के द्रव्य-गुण-पर्याय सब एक समय में ज्ञात होते हैं। सम्पूर्ण जगत एक समय में जानने में आता है फिर भी एक समय की पर्याय में अपना द्रव्य, गुण या छह द्रव्य आते नहीं हैं।।४१८ ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-१०, पृष्ठ ४७, पैराग्राफ ४)
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* मैं पर को मारता हूँ, मैं पर को जानता हूँ-समकक्षी पाप है*
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