Book Title: Indriya Gyan
Author(s): Sandhyaben, Nilamben
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 201
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है नहीं हैं। घट को जाननेवाला घटरूप होता नहीं है। और घट को जाननेवाला वास्तव में घट को जानता है ऐसा भी नहीं है। स्वपर को जानने के ज्ञानरूप स्वयं आत्मा ही होता है। घट को जानने के ज्ञानरूप तो आत्मा होता है; इसलिए घट का ज्ञान नहीं, परन्तु आत्मा का ही ज्ञान है। अपने में तो अपने ज्ञानपरिणाम का अस्तित्व है ज्ञेय का नहीं। आत्मा का 'ज्ञ' स्वभाव है, और 'ज्ञ' स्वभावी आत्मा में जाननक्रिया होती है, वो स्वयं से होती हुई स्वयं अपनी क्रिया है, उसमें परज्ञेय का कुछ है ही नहीं है। इस प्रकार ज्ञेय सम्बन्धी अपने ज्ञान का जो परिणमन हुआ वह ज्ञेय स्वयं, ज्ञान स्वयं ही और स्वयं ही ज्ञाता है। समझ में आया कुछ...? ज्ञेयों के आकार की झलक ज्ञान में आने पर ज्ञान ज्ञेयाकर दिखता है, परन्तु यह ज्ञान की ही तरंगें है। देखो, ज्ञान ज्ञेयाकार है-ऐसा नहीं, यह तो ज्ञेय को जानने के प्रति ऐसे ज्ञानाकाररूप ज्ञान स्वयं ही हुआ है, ज्ञेय का उसमें कुछ भी नहीं हैं। ज्ञेय ज्ञान में घुसा है, आया है-ऐसा है ही नहीं। अर्थात् ज्ञान ज्ञेयरूप होता है-ऐसा है ही नहीं है, ज्ञान ज्ञानाकार ही है। यह ज्ञान की ही कल्लोलें हैं। अहाहा....! कैसा भेदज्ञान कराया है! वीतराग मार्ग बहुत सूक्ष्म है भाई! जरा धीरज रखकर सुन! कहते हैं-आत्मा पर का कुछ करे और पर से आत्मा में कुछ होवे यह बात तो जाने दे, यह बात तो है ही नहीं, लेकिन पर ज्ञान की पर्याय में जनाय, ज्ञान पर को जाने और परज्ञेय ज्ञान की पर्याय में आ जाए-घुस जाए ऐसा है नहीं। वस्तु-द्रव्य एकज्ञायकभावपने है वह स्वयं ज्ञान की पर्यायपने जाननक्रियारूप होती है, वह अपनी स्वपर प्रकाशक की क्रिया है। उसमें पर जानने में आता है ऐसा कहना वह व्यवहार है, बस! पर जानने में नहीं आता है, अपनी जाननक्रिया जाननेरूप है वह जानने में आती है। १६७ * प्रथम द्रव्य को जान* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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