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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
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अशुद्धता-नहीं हुई। क्योंकि वह तो ज्ञायक की पर्याय को ही जानता है। अहा! राग को जानने के काल में राग के आकार का जो ज्ञान हुआ है वह राग के कारण से ( राग के आकार रूप) नहीं हुआ है। परन्तु उस समय ज्ञान पर्याय का ही अपना ज्ञानाकार होने का स्वभाव होने से इस प्रकार हुआ है। इसलिए, उस समय राग जानने में नहीं आया परन्तु जाननहार की पर्याय को उसने जाना है! समझ में आया कुछ...? ।।३३९ ।।
( श्री ज्ञायक भाव पुस्तक में से पृष्ठ ५३ ) * यहाँ कहते हैं कि भगवान आत्मा को जब उसने सर्वज्ञपने स्थापित किया और जब उसको सर्वज्ञ स्वभाव का भान हुआ तब उसने स्व को-जाननहार को-तो जाना। परन्तु (क्या) उस समय उसने पर को जाना है ? भाई! उस समय भी उसने जाननहार की पर्याय को ही जाना है, जाननहार की पर्याय तरीके ही वह जानने में आया है। परन्तु राग की पर्याय तरीके जानने में आया है-अथवा राग की पर्याय है इसलिए उसको जाना है-ऐसा नहीं है। भगवान की, परमात्मा की वाणी और मुनियों की वाणी में कोई अन्तर नहीं है क्योंकि मुनियों आढतिया होकर सर्वज्ञ की वाणी को ही कहते हैं। लेकिन भाई! इन बातों को तुने सुना नहीं है।।३४० ।।
(श्री ज्ञायक भाव पुस्तक में से पृष्ठ ५४) * वह (आत्मा) अपनी पर्याय का जाननेवाला है। इसलिए केवली लोकलोक को जानते हैं-ऐसा भी नहीं है। परन्तु केवली अपनी पर्याय को जानते हैं। इसलिए पर्याय उनका कार्य है और कर्ता उनका ज्ञानस्वरूप है। अथवा पर्याय है-इस कारण से लोकालोक है और इसलिए यहाँ ज्ञान-केवलज्ञान हुआ है-ऐसा नहीं है।।३४१।।।
( श्री ज्ञायक भाव पुस्तक में से पृष्ठ ५८) १७७
*इन्द्रियज्ञान भव का हेतु है
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