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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
भिन्न ऐसा आत्मज्ञान और श्रद्धान नहीं हुआ इसलिए जिसमें लीन होना है (स्थिर होना है) उसको तो जाना नहीं। इस कारण राग से भिन्न होकर आत्मा में स्थिर होने में असमर्थ होने से यह राग में ही लीन रहेगा। मिथ्यादृष्टि चाहे जितना शुभभाव रूप क्रियाकाण्ड करे, मुनिपणा धारण करे, और व्रत नियम पाले तो भी ये राग में ही ठहरेगा। आत्मज्ञान-श्रद्धान बिना ये सब राग की क्रिया में रमता है।।३६३।।। ( श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १७–१८,
पृष्ठ ३७, पैराग्राफ २) * जैसे रूपी दर्पण की स्वपर के आकार को प्रतिभासनारी स्वच्छता ही है और उष्णता तथा ज्वाला अग्नि की है... क्या कहते हैं ? जब दर्पण के सामने अग्नि हो तब दर्पण में जो प्रतिबिम्ब (अग्नि जैसा आकार) दिखता है वह दर्पण की स्वच्छता की पर्याय है, लेकिन अग्नि की पर्याय नहीं है। जो बाह्य में ज्वाला और उष्णता है वह अग्नि की है परन्तु दर्पण में जो प्रतिबिम्ब दिखाई देता है वह तो दर्पण की-स्व-पर के आकार के स्वरूप को प्रतिभासनारी स्वच्छता ही है।
उसी प्रकार अरूपी आत्मा की तो स्व और पर को जाननेवाली (प्रतिभासनारी) ज्ञातृता (ज्ञातापना) ही है। और कर्म तथा नोकर्म पुद्गल के हैं। क्या कहते हैं ? राग, दया, दान, पुण्य-पाप आदि जो विकल्प उसके आकाररूप अर्थात् ज्ञेयाकार रूप ज्ञान हुआ यह तो ज्ञान की पर्याय है, परन्तु राग की पर्याय नहीं है। जैसे अग्नि की पर्याय अग्नि में रहती है, लेकिन उसका आकार (प्रतिबिम्ब ) जो दर्पण में दिखाई देता है वह अग्नि की पर्याय नहीं है लेकिन यह तो दर्पण की स्वच्छता की आकृति की पर्याय है। उसी प्रकार भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप है। यह ज्ञेयाकार स्व का ज्ञान करते हैं और दया, दान, व्रत आदि विकल्प का ज्ञान करते हैं। जो यह पर
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* इन्द्रियज्ञान ज्ञेय का क्षयोपशम है*
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