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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
दर्पन में दिखते हैं लेकिन ये दर्पण से भिन्न चीज हैं न ? दर्पन में तो उन पदार्थों की झलक दिखती है, लेकिन क्या कोयला और अग्नि आदि दर्पण में है ? दर्पण में तो दर्पण की स्वच्छता का अस्तित्व है। यदि अग्नि आदि उसमें घुस जाये तो दर्पण अग्निमय हो जाये, उसको हाथ से स्पर्श करने से हाथ जल जाये, लेकिन ऐसा है नहीं। दर्पन दर्पन की स्वच्छता के परिणामरूप में स्वयं अपने से ही परिणमा है; कोयला और अग्नि का उसमें कुछ भी नहीं है। समझ में आया कुछ...?
यह क्या कहा ? फिर से, एक ओर दर्पण है और उसके सामने एक ओर अग्नि और बर्फ है। अग्नि, अग्नि में लबक-झबक होती है और बर्फ, बर्फ में पिघलती जाती है। उस समय दर्पण में भी बस ऐसा ही दिखता है। तो क्या दर्पण में अग्नि और बर्फ है ? ना; अग्नि और बर्फ
का होना तो बाहर अपने-अपने में है, दर्पण में उसका होना (अस्तित्व) नहीं है। दर्पण में वे घुसे नहीं है। दर्पण में तो दर्पण की उसरूप स्वच्छ दशा हुई है वही है। अग्नि और बर्फ सम्बन्धी दर्पण की स्वच्छता की दशा वह दर्पण का अपना परिणमन है। अग्नि और बर्फ का उसमें कुछ भी नहीं है; अग्नि और बर्फ ने उसमें कुछ भी किया नहीं है, वे तो भिन्न पदार्थ हैं। __उसी प्रकार भगवान आत्मा स्वच्छ चैतन्य दर्पण है। उसके ज्ञान में ज्ञेयों के आकार की झलक आते ही ज्ञान ज्ञेयाकार दिखता है। सामने जैसा ज्ञेय है, उसी प्रकार की विशेषतारूप अपनी ज्ञान की दशा होने से मानो कि ज्ञान ज्ञेयाकाररूप हो गया हो ऐसा दिखता है; परन्तु ज्ञान ज्ञेयाकार हुआ ही नहीं है, ज्ञानाकार ही है। अर्थात् वे ज्ञेय की तरंगे नहीं हैं, लेकिन ज्ञान की ही तरगें-कल्लोलें हैं, ज्ञान की ही दशा है; ज्ञेयों का उसमें कुछ भी नहीं है। समझ में आया कुछ....?
* इन्द्रियज्ञान संसार का मूल है*
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