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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
जो मैं जानने वाला हूँ सो मैं ही हूँ, अन्य कोई नहीं'-ऐसा अपने को अपना अभेदरूप अनुभव हुआ तब इस जाननेरूप क्रिया का कर्ता स्वयं ही है, और जिसे जाना वह कर्म भी स्वयं ही है।।५९ ।। ।
( श्री समयसार जी, गाथा ६ टीका, में से,
पंडित श्री जयचन्द जी छावड़ा ) * जो जीव निश्चय से श्रुतज्ञान के द्वारा इस अनुभव-गोचर केवल एक शुद्ध आत्मा को ( अभिगच्छति) सम्मुख होकर जानता है, उसे लोक को प्रकट जानने वाले ऋषीश्वर श्रुतकेवली कहते हैं; जो जीव सर्व श्रुतज्ञान को जानता है उसे जिनदेव श्रुतकेवली कहते हैं, क्योंकि ज्ञान सब आत्मा ही है इसलिए ( वह जीव ) श्रुतकेवली है।।६०।।
(श्री समयसार जी, गाथा ९–१० का गाथार्थ, श्री कुंदकुदाचार्य) * प्रथम , “ जो श्रुत से केवल शुद्धात्मा को जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं" वह तो परमार्थ है; और “जो सर्वश्रुतज्ञान को जानते हैं वे श्रुतकेवली है" यह व्यवहार है। यहाँ दो पक्ष लेकर परीक्षा करते हैं- उपरोक्त सर्वज्ञान आत्मा है या अनात्मा ? यदि अनात्मा का पक्ष लिया जाये तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि जो समस्त जड़रूप अनात्मा आकाशादि पाँच द्रव्य है, उनका ज्ञान के साथ तादात्म्य बनता ही नहीं ( क्योंकि उनमें ज्ञान सिद्ध नहीं है।) इसलिए अन्य पक्ष का अभाव होने से 'ज्ञान आत्मा ही है' यह पक्ष सिद्ध हुआ। इसलिए श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है। ऐसा होने से ‘जो आत्मा को जानता है, वह श्रुतकेवली है' ऐसा ही घटित होता है; और वह तो परमार्थ ही है। इस प्रकार ज्ञान और ज्ञानी के भेद से कहने वाला जो व्यवहार है उससे भी परमार्थ मात्र ही कहा जाता है, उससे भिन्न कुछ नहीं कहा जाता। और “जो श्रुत से केवल शुद्धात्मा को जानते हैं वे श्रुतकेवली है,” इस प्रकार - परमार्थ का प्रतिपादन करना अशक्य होने से “जो सर्व श्रुतज्ञान को जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं” ऐसा व्यवहार
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* इन्द्रियज्ञान अरूपी ऐसे आत्मा को जानता नहीं है
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