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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
मैं क्रोधी हूँ, मैं मानी हूँ इत्यादी। इस प्रकार अज्ञानी जीव रागद्वेषादि का कर्त्ता होता है।।१०९।।
(श्री समयसार जी गाथा ९२ का भावार्थ) * ज्ञायक भाव सामान्य अपेक्षा से ज्ञानस्वभाव से अवस्थित होने पर भी कर्म से उत्पन्न होते हुए मिथ्यात्वादि भावों के ज्ञान के समय, अनादि काल से ज्ञेय और ज्ञान के भेदविज्ञान से शून्य होने से, पर को आत्मा के रूप में जानता हुआ वह (ज्ञायक भाव) विशेष अपेक्षा से अज्ञानरूप ज्ञानपरिणाम को करता है (-अज्ञानरूप ऐसा जो ज्ञान का परिणमन उसको करता है) इसलिये, उसके कर्तृत्व को स्वीकार करना चाहिये; वह भी तब तक कि जब तक भेदविज्ञान के प्रारम्भ से ज्ञेय और ज्ञान को ही आत्मा के रूप में जानता हुआ वह (ज्ञायक भाव) विशेष अपेक्षा से भी ज्ञानरूप ही ज्ञानपरिणाम से परिणमित होता हुआ ( - ज्ञानरूप ऐसा जो ज्ञान का परिणमन उस रूप का परिणमित होता हुआ ), मात्र ज्ञातृत्व के कारण साक्षात् अकर्ता हो।।११०।।
(श्री समयसार जी गाथा ३३२ से ३४४ की टीका में से) * यहाँ यह समझना चाहिये कि-मिथ्यात्वादि कर्म की प्रकृतियाँ पुद्गलद्रव्य के परमाणु हैं। जीव उपयोगस्वरूप है। उसके उपयोग की ऐसी स्वच्छता है कि पुदगलिक कर्म का उदय होने पर उसके उदय का जो स्वाद आवे उसके आकार उपयोग हो जाता है। अज्ञानी को अज्ञान के कारण उस स्वाद का और उपयोग का भेदज्ञान नहीं है इसलिये उस स्वाद को ही अपना भाव समझता है। जब उनका भेदज्ञान होता है अर्थात् जीवभाव को जीव जानता है और अजीव भाव को अजीव जानता है तब मिथ्यात्व का अभाव होकर सम्यग्ज्ञान होता है।।१११।।
(श्री समयसार जी गाथा-८७ के भावार्थ में से)
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* पर को जानने से ज्ञान भी नहीं, सुख भी नही*
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