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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
है।।१२७ ।। (श्री योगसार, अमितगति आचार्य , जीव अधिकार
गाथा-४५ व्याख्या में से) * 'क्षायोपशमिक भाव भी शुद्ध जीव का रूप नहीं है जो ज्ञान आदि के भी रूप में क्षायोपशमिक भाव है वे तत्व-दृष्टि से विशुद्ध-जीव का स्वरूप नहीं है।।१२८ ।।
(श्री योगसार, श्री अमितगति आचार्य, जीवाधिकार, गाथा ५८) * जो कुछ इन्द्रियगोचर वह सब आत्मबाह्य। __ शब्दार्थ :- इन्द्रियों द्वारा जो कुछ भी देखा जाता, जाना जाता और अनुभव किया जाता है वह आत्मा से बाह्य , नाशवान तथा चेतनारहित है।।१२९ ।।
(श्री योगसार, अमितगति आचार्य, अजीव अधिकार, गाथा ४४) * कुतर्क ज्ञान को रोकने वाला, शांति का नाशक , श्रद्धा को भंग करने वाला और अभिमान को बढ़ाने वाला मानसिक रोग है, जो कि अनेक प्रकार से ध्यान का शत्रु है। अत: मोक्षाभिलाषियों को कुतर्क में अपने मन को लगाना युक्त नहीं, प्रत्युत इसको आत्मतत्व में लगाना योग्य है, जो कि स्वात्मोपलब्धि रूप सिद्धि-सदन में प्रवेश कराने वाला है।।१३०।।
( श्री योगसार, श्री अमितगति आचार्य, मोक्ष अधिकार, गाथा ५२-५३) * वैषयिक ज्ञान सब पौद्गलिक है
शब्दार्थ :- जीव का जितना वैषयिक (इन्द्रियजन्य) ज्ञान है वह सब पौद्गलिक माना गया है और दूसरा जो ज्ञान विषयों से परावृत है-इन्द्रियों की सहायता से रहित है वह सब आत्मीय है।
* मैं पर को जानता हूँ ऐसी मान्यता में भावेन्द्रिय से एकत्वबुद्धि होती है
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