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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* यह, निश्चयनय से स्वरूप का कथन है।
यहाँ निश्चयनय से शुद्ध ज्ञान का लक्षण स्वप्रकाशकपना कहा है; उसी प्रकार सर्व आवरण से मुक्त शुद्ध दर्शन भी स्वप्रकाशक ही है। आत्मा वास्तव में, उसने सर्व इन्द्रियव्यापार को छोड़ा होने से स्वप्रकाशकस्वरूप लक्षण से लक्षित है; दर्शन भी, उसने बहिर्विषयपना छोड़ा होने से स्वप्रकाशत्वप्रधान ही है। इस प्रकार स्वरूपप्रत्यक्ष-लक्षण से लक्षित अखण्ड-सहज-शुद्धज्ञान दर्शनमय होने के कारण, निश्चय से त्रिलोक-त्रिकालवर्ती स्थावर-जंगमस्वरूप समस्त द्रव्यगुणपर्यायरूप विषयों सम्बन्धी प्रकाश्य-प्रकाशकादि विकल्पों से अतिदूर वर्तता हुआ, स्वस्वरूपसंचेतन जिसका लक्षण है, ऐसे प्रकाश द्वारा सर्वथा अंतर्मुख होने के कारण, आत्मा निरन्तर अखण्ड-अद्वैत-चैतन्य-चमत्कारमूर्ति रहता है।।१५२।।
(श्री नियमसार गाथा १६५ टीका पद्मप्रभमलधारिदेव) * निश्चय से आत्मा स्वप्रकाशक ज्ञान है; जिसने बाह्य आलम्बन नष्ट किया है ऐसा ( स्वप्रकाशक ) जो साक्षात् दर्शन उस-रूप भी आत्मा है। एकाकार निज रस के विस्तार से पूर्ण होने के कारण जो पवित्र है तथा जो पुराण ( सनातन) है ऐसा यह आत्मा सदा अपनी निर्विकल्प महिमा में निश्चित रूप से वास करता है।।१५३ ।।
(श्री नियमसार जी कलश-२८१, पद्मप्रभमलधारिदेव) * (निश्चय से) केवली भगवान आत्म स्वरूप को देखते हैं, लोकलोक को नहीं-ऐसा यदि कोई कहे तो उसे क्या दोष है ? (अर्थात् कुछ दोष नहीं है)।।१५४ ।।
(श्री नियमसार, कुंदकुंदाचार्यदेव गाथा १६६ ) * यह, शुद्धनिश्चयनय की विवक्षा से परदर्शन का (पर को देखने का )
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*केवल निज शुद्धात्मा को जानते हैं इसलिए केवली हैं
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