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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
ज्ञेयाकार परिणमन, उससे ( व्यावृत्तं ) परान्मुख है। भावार्थ इस प्रकार है-सकल ज्ञेयवस्तु को जानती है तद्रूप नहीं होती अपने स्वरूप रहती है।।२१८।।
(श्री समयसार कलश टीका, कलश १२५ में से )
* द्रव्यरूप से मिथ्यात्वकर्म उपशमा है, भावरूप से शुद्ध सम्यक्त्व भावरूप परिणमा है जो जीव, उसके (ज्ञान) शुद्धस्वरूप का अनुभवरूप जानपना, ( वैराग्य) जितने परद्रव्य द्रव्यकर्मरूप, भावकर्मरूप, नोकर्मरूप ज्ञेयरूप हैं उन समस्त पर द्रव्यों का सर्व प्रकार त्याग ( शक्ति: ) ऐसी दो शक्तियाँ ( नियतं भवति ) अवश्य होती हैं- सर्वथा होती हैं ।। २९९ ।। ( श्री समयसार कलश टीका, कलश ९३६ में से )
* भावार्थ इस प्रकार है - जिस प्रकार उष्णतामात्र अग्नि है, इसलिए दाह्य वस्तु को जलाती हुई दाह्य के आकार परिणमती है, इसलिए लोगों को ऐसी बुद्धि उपजती है कि काष्ठ की अग्नि, छाना की अग्नि, तृण की अग्नि। सो ये समस्त विकल्प झूठे हैं। अग्नि के स्वरूप का विचार करने पर उष्णतामात्र अग्नि है, एकरूप है । काष्ठ, छाना, तृण अग्नि का स्वरूप नहीं है उसी प्रकार ज्ञान चेतनाप्रकाशमात्र है, समस्त ज्ञेयवस्तु को जानने का स्वभाव है, इसलिए समस्त ज्ञेयवस्तु को जानता है, जानता हुआ ज्ञेयाकार परिणमता है। इससे ज्ञानी जीव को ऐसी बुद्धि उपजती है कि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान ऐसे भेद विकल्प सब झूठे हैं । ज्ञेय की उपाधि से मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवल ऐसे विकल्प उपजे हैं। कारण कि ज्ञेयवस्तु नाना प्रकार है। जैसे ही ज्ञेय का ज्ञायक होता है वैसा ही नाम पाता है, वस्तुस्वरूप का विचार करने पर ज्ञानमात्र है। नाम धरना सब झूठा है। ऐसा अनुभव शुद्ध स्वरूप का अनुभव है। “ किल” निश्चय से ऐसा ही है ।। २२० ।।
(श्री समयसार कलश टीका, कलश १४० में से )
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* इन्द्रियज्ञान आत्मा को तिरोभूत करके प्रगट होता है*
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