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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानी के तो होता नहीं है, ज्ञानी को ज्ञानमय ही भाव होता है; इसलिए अज्ञानमय भाव होता है; इसलिए अज्ञानमय भाव रूप जो इच्छा उसका अभाव होने के कारण ज्ञानी मन, वचन, काय, चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसन और स्पर्शन को नहीं इच्छता, इसलिए ज्ञानी को श्रोत्रादि (ज्ञानी) श्रोत्रादि ( भावेन्द्रियों) का परिगृह नहीं हैं, ज्ञानमय एक ज्ञायकभाव के सद्भाव के कारण यह (ज्ञानी) श्रोतादि (इन्द्रियों) का केवल ज्ञायक ही है।।२५८ ।।।
(श्री समयसार गाथा, २११ की टीका , श्री अमृतचंद्राचार्य देव)
* वास्तव में राग नामक पुद्गल कर्म है उसके उदय के विपाक से उत्पन्न हुआ यह रागरूप भाव है, यह मेरा स्वभाव नहीं है; मैं तो यह (प्रत्यक्ष अनुभव गोचर ) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भाव हूँ। (इस प्रकार सम्यग्दृष्टि विशेषतया स्व को और पर को जानता है।)
और इसी प्रकार राग पद को बदलकर उसके स्थान पर द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन- ये शब्द रखकर सोलह सूत्र व्याख्यान रूप करना और इसी उपदेश से दूसरे भी विचारना।।२५९ ।।
(श्री समयसार गाथा, १९९ की टीका, श्री अमृतचंद्राचार्य देव) * जो सहज परम पारिणामिक भाव से स्थित, स्वभाव-अनन्त चतुष्टयात्मक शुद्ध ज्ञान चेतना परिणाम सो नियम ( –कारणनियम) है। नियम (–कार्यनियम) अर्थात् निश्चय से (निश्चित) जो करने योग्यप्रयोजन स्वरूप-हो वह अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र। उन तीनों में से प्रत्येक का स्वरूप कहा जाता है।
(१) परद्रव्य का अवलम्बन लिये बिना निःशेषरूप से अन्तर्मुख योगशक्ति में से उपादेय (-उपयोग को सम्पूर्ण रूप से अन्तर्मुख करके
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___* मैं पर को जानता हूँ ऐसी बुद्धि मिथ्या है
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