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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* जो ज्ञान का उपयोग रागादि विकारों में तथा परपदार्थों में रुकता है वह ज्ञान नहीं है, लेकिन जो ज्ञान ज्ञान में ही प्रतिष्ठित होता है वही वास्तविक ज्ञान है-आत्मतत्व है; इसलिए वह उपादेय है।
जों उपयोग पर में ही अटका हुआ रहने से आत्म सन्मुख नहीं झुकता वह पर के झुकाव वाला तत्व है, आत्मा के तरफ झुकने वाला तत्व नहीं है उससे संसार है, इसलिए वह हेय है।।२०१।। ।
( श्री समाधितंत्र, गाथा ३६ के विशेष में से)
* जो अर्थात् शरीरादि बाह्य पदार्थ इन्द्रियों द्वारा मैं देखता हूँ-वह मेरा नहीं है-मेरा स्वरूप नहीं है, लेकिन भावेन्द्रियों को बाह्य विषयों से रोककर जो उत्कृष्ट अतीन्द्रिय आनन्दमय ज्ञान-ज्योति को अंतरंग में मैं देखता हूँ-उसका अनुभव करता हूँ, वह मेरा वास्तविक स्वरूप है।।२०२।।
(श्री समाधितंत्र, गाथा ५१ का अर्थ, श्री पूज्यपादस्वामी)
* जो अर्थात शरीरादिक को मैं इन्द्रियों से देखता हूँ वह मेरा नहीं है अर्थात् मेरा स्वरूप नहीं है तो तेरा रूप क्या है ? वह उत्तम ज्योति हैज्योति अर्थात ज्ञान और उत्तम अर्थात् अतीन्द्रिय-तथा आनन्दमय अर्थात परम प्रसन्नता (प्रशांति) से उत्पन्न हुए सुख से युक्त (है) इस प्रकार की जो ज्योति है उसको अंतरंग में मैं देखता हूँ-स्वसंवेदन से मैं अनुभवता हूँ, वह मेरा स्वरूप अस्तु-हो। मैं कैसा होकर देखता हूँ? इन्द्रियों को संयमित करके (बाह्य विषयों से इन्द्रियों को रोककर और स्वयं स्वाधीन होकर) अर्थात् इन्द्रियों को काबू में रखकर ( मैं देखता हूँ )।।२०३।।
(श्री समाधितंत्र, गाथा ५१ टीका , श्री प्रभाचंद्र जी) * इन्द्रियों द्वारा जो शरीरादि बाह्य पदार्थ दिखते हैं वह मैं नहीं हूँ। वह
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* मैं पर को जानता हूँ-ऐसा मानना वह श्रद्धा का दोष है
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