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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
( अहं) मैं हूँ, (अवशेषाः) शेष (ये भावाः) जो भाव हैं (ते) वे ( मम पराः) मुझसे पर हैं (इति ज्ञातव्याः) ऐसा जानना चाहिये।।१३७ ।।
(समयसार जी, गाथा २९८-२९९ श्री कुंदकुंदाचार्य जी) * टीका :- चेतना दर्शनज्ञानरूप भेदों का उल्लंघन नहीं करती है इसलिये, चेतकत्व की भाँति दर्शकत्व और ज्ञातृत्व आत्मा का स्वलक्षण ही है। इसलिये मैं देखने वाला आत्मा को ग्रहण करता हूँ। ‘ग्रहण करता हूँ' अर्थात् 'देखता ही हूँ'; देखता हुआ ही देखता हूँ, देखते हुए के द्वारा ही देखता हूँ, देखते हुये के लिये ही देखता हूँ, देखते हुये से ही देखता हूँ, देखते हुये में ही देखता हूँ, देखते हुये को ही देखता हूँ। अथवा-नहीं देखता; न देखते हुए को देखता हूँ, न देखते हुए के द्वारा देखता हूँ, न देखते हुए के लिये देखता हूँ, न देखते हुये से देखता हूँ, न देखते हुये में देखता हूँ, न देखते हुए को देखता हूँ; किन्तु मैं सर्व विशुद्ध दर्शनमात्र भाव हूँ। और इसी प्रकार- मैं जानने वाले आत्मा को ग्रहण करता हूँ। 'ग्रहण करता हूँ' अर्थात् ‘जानता ही हूँ; जानता हुआ ही जानता हूँ, जानते हुए के द्वारा ही जानता हूँ, जानते हुए के लिये ही जानता हूँ, जानते हुए से ही जानता हूँ, जानते हुए में ही जानता हूँ, जानते हुए को ही जानता हूँ। अथवा-नहीं जानता; न जानते हुए को जानता हूँ, नहीं जानते हुए के द्वारा जानता हूँ, न जानते हुए के लिये जानता हूँ, न जानते हुये से जानता हूँ, न जानते हुए में जानता हूँ न जानते हुए को जानता हूँ; किन्तु मैं सर्व विशुद्ध ज्ञप्ति ( –जाननक्रिया) मात्र भाव हूँ। (इस प्रकार देखने वाले आत्मा को तथा जानने वाले आत्मा को कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादन और अधिकरणरूप कारकों के भेदपूर्वक ग्रहण करके, तत्पश्चात् कारक भेदों का निषेध करके आत्मा को अर्थात् अपने को दर्शनमात्र भावरूप तथा ज्ञानमात्र भावरूप अनुभव करना चाहिये अर्थात् अभेदरूप से अनुभव
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* मैं आँख से रूप को देखता हूँ, यह मान्यता मिथ्या है*
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