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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
ज्ञायक अथवा ज्ञानी को भी जानता है। न जानने की बात कैसी ? ।।१२०।।
( श्री योगसार प्राभृत ,अमितगति आचार्य,
निर्जरा अधिकार गाथा-३८) * इन्द्रियज्ञान के विषय से भिन्न जो अंतरंग में अवभासित होता है वह ज्ञाता के गम्य आत्मा का अभ्रान्त रूप है।।१२१।।।
(श्री योगसार अमितगति आचार्य, चूलिका अधिकार गाथा ४४) * जिस प्रकार दीपक से द्योत्य (प्रकाशनीय वस्तु) को जानकर दीपक को द्योत्य से अलग किया जाता है उसी प्रकार ज्ञान से ज्ञेय को जानकर ज्ञान को ज्ञेय से अलग किया जाता है। जो ज्ञान आत्मा का स्वरूप है, सूक्ष्म है; व्यपदेशरहित अथवा वचन के अगोचर है उसका व्यपोहन-त्याग अथवा पृथक्करण नहीं होता, उससे भिन्न जो वैकारिक-इन्द्रियों आदि द्वारा विभाव परिणत-ज्ञान है उसको दूर किया जाता है।।१२२ ।।
( श्री योगसार, श्री अमितगति आचार्य , चूलिकाधिकार गाथा ७८,७९) * शब्दार्थ :- ज्ञान आत्मा को (अपने को) और पदार्थ-समूह को स्वभाव से ही जानता है। जैसे दीपक स्वभाव से अन्य पदार्थ-समूह को प्रकाशित करता है वैसे अपने प्रकाशन में अन्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखता-अपने को भी प्रकाशित करता है।
व्याख्या :- पिछले पद्य में यह बतलाया गया है कि केवलज्ञान दूरवर्ती पदार्थ को भी जानता है, चाहे वह दूरी क्षेत्र सम्बन्धी हो या काल सम्बन्धी, तब यह भ्रम उत्पन्न होता है कि ज्ञान पर को ही स्वभाव से जानता है या अपने को भी जानता है ? इस पद्य में दीपक के उदाहरण द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि जिस तरह दीपक
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*इन्द्रियज्ञान को ज्ञान मानना वह ज्ञान की भूल है*
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