________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
नम: समयसाराय * शुद्ध जीव के सारपना घटता है। सार अर्थात् हितकारी , असार अर्थात् अहितकारी। सो हितकारी सुख जानना, अहितकारी दुख जानना। कारण कि अजीव पदार्थ पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल के और संसारी जीव के सुख नहीं, ज्ञान भी नहीं, और उनका स्वरूप जानने पर जाननहारे जीव को भी सुख नहीं, ज्ञान भी नहीं, इसलिए इनके सारपना घटता नहीं। शुद्ध जीव के सुख है, ज्ञान भी है, उसको जानने पर - अनुभवने पर जाननहारे को सुख है, ज्ञान भी है, इसलिए शुद्ध जीव के सारपना घटता है।।१।।
(पांडे राजमलजी कृत श्री समयसार कलश टीका , कलश-१) योऽयं भावो ज्ञानमात्रोऽहमस्मि ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानमात्रः स नैव। ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानकल्लोलवल्गन् ज्ञानज्ञेयज्ञातृमद्वस्तुमात्रः।।८-२७१।। खण्डान्वय सहित अर्थ - भावार्थ इस प्रकार है कि ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध के ऊपर बहुत भ्रान्ति चलती है सो कोई ऐसा समझेगा कि जीव वस्तु ज्ञायक, पुद्गल से लेकर भिन्न रूप छह द्रव्य ज्ञेय हैं। सो ऐसा तो नहीं है। जैसा इस समय कहते हैं उस प्रकार है – “अहं अयं यः ज्ञानमात्र: भावः अस्मि” ( अहं ) मैं ( अयं यः) जो कोई (ज्ञानमात्र: भावः अस्मि) चेतना सर्वस्व ऐसा वस्तु स्वरूप हूँ “ सः ज्ञेयः न एव” वह मैं ज्ञेयरूप हूँ परन्तु ऐसा ज्ञेयरूप नहीं हूँ। कैसा ज्ञेयरूप नहीं हूँ – “ज्ञेयः ज्ञानमात्रः” (ज्ञेयः) अपने जीव से भिन्न छह द्रव्यों के समूह का (ज्ञानमात्रः) जानपना मात्र। भावार्थ इस प्रकार है कि मैं ज्ञायक समस्त छह द्रव्य मेरे ज्ञेय ऐसा तो नहीं ।
* इन्द्रियज्ञान वास्तव में ज्ञेय भी नहीं है।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com