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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
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और भविष्य में प्रवृत्त होने वाले को नहीं जानता (क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष का अभाव है)।।२६ ।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा-४१ की टीका) * टीका :- इन्द्रिय ज्ञान को उपलम्भक भी मूर्त है, और उपलभ्य भी मूर्त है। वह इन्द्रियज्ञान वाला जीव स्वयं अमूर्त होने पर भी मूर्तपंचेन्द्रियात्मक शरीर को प्राप्त होता हुआ, ज्ञप्ति उत्पन्न करने में बलधारण का निमित्त होने से जो उपलम्भक है ऐसे उस मूर्त (शरीर) के द्वारा मूर्त-स्पर्शादि प्रधान वस्तु को जो कि योग्य हो अर्थात् जो (इन्द्रियों के द्वारा) उपलभ्य हो उसे-अवग्रह हो उसे अवग्रह करके, कदाचित् उससे ऊपर-ऊपर की शुद्धि के सद्भाव के कारण उसे जानता है और कदाचित् अवग्रह से ऊपर-ऊपर की शुद्धि के असद्भाव के कारण नहीं जानता, क्योंकि वह (इन्द्रिय ज्ञान) परोक्ष है। परोक्ष ज्ञान, चैतन्य सामान्य के साथ ( आत्मा का) अनादिसिद्ध सम्बन्ध होने पर भी जो अति दृढ़तर अज्ञान रूप तमोग्रन्थि (अंधकार समूह) द्वारा आवृत हो गया है, ऐसा आत्मा पदार्थ को स्वयं जानने के लिये असमर्थ होने से उपात्त और अनुपात्त परपदार्थ रूप सामग्री को ढूंढ़ने की व्यग्रता से अत्यन्त चंचल-तरल-अस्थिर वर्तता हुआ , अनन्तशक्ति से च्युत होने से अत्यन्त विक्लव वर्तता हुआ, महामोह-मल्ल के जीवित होने से पर परिणति का (पर को परिणमित करने का) अभिप्राय करने पर भी पद-पद पर ठगाता हुआ, परमार्थतः अज्ञान में गिने जाने योग्य है; इसलिये वह हेय है।।२७।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा-५५ टीका) * भावार्थ :- कौवे की दो आँखें होती हैं, किन्तु पुतली एक ही होती है। कौवे को जिस आँख से देखना हो उस आँख में पुतली आ जाती है; उस समय वह दूसरी आँख से नहीं देख सकता। ऐसा होने पर भी वह पुतली इतनी जल्दी दोनों आँखों में आती-जाती है कि लोगो को ऐसा मालूम होता
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* मैं आँख से रूप को देखता हूँ, यह मान्यता मिथ्या है
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