Book Title: Haryanvi Jain Kathayen
Author(s): Subhadramuni
Publisher: Mayaram Sambodhi Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ ही सहजता/निश्छलता के साथ बोला और सुना जाता है। कितनी सरलता है, यहाँ के जीवन मे! परम आत्मीयता, खुलेपन और सहजता की यह हरियाणवी भाषा-संस्कृति है।नगरों में यह आडम्बरी सभ्यता बन जाती है और तब भाषा आडम्बर का आवरण ओढ कर तू से 'तुम' और तुम से 'आप' आत्मीयता के सहज स्वरूप को चारों ओर से ढक लेती है। 'आप' की नकली बनावटी चमकीली चादर से ढके लोग 'तू' को असभ्यता और गँवारपन कहकर हृदय की धवलता/निर्मलता का मखौल उड़ाते हैं। मखौल उड़ाते समय ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि भक्त जब विह्वल होकर अपने आराध्य भगवान को 'तू' कहकर पुकारता है, तब क्या वह सचमुच गवार या असभ्य बन जाता है या भगवान के साथ सहज आत्मीयता से जुड़ा होता है ? भक्त कहता है-“भगवान तू कहाँ है? तू मेरी पुकार क्यों नहीं सुनता? मेरी बारी में तू कहा चला गया? मेरे लिए तू कहाँ सो गया है? यद्यपि प्रभु इन सब भावों से (आना-जाना) मुक्त है परन्तु भक्त की ये पुकार है। तुलसी ने तो अपने राम से स्पष्ट कहा है : तोहि मोहि नाते अनेक, मानिए जो भावै। ही प्रसिद्ध पातकी, तू पाप पुंज हारी । तू दानि हौं भिखारी।। अर्थात् भगवन् ! तेरे-मेरे अनेक सम्बन्ध हैं। उनमें तुझे जो अच्छा लगे, उसे ही मान । जैसे मैं तो प्रसिद्ध पापी हूँ ओर तू पाप पुंजों को नष्ट करने वाला (हरि) हैं। तू अगर दाता-दानी है तो मैं तेरे द्वार पर खड़ा भिक्षुक-याचक हूँ। 'आप' के इस आडम्बर की आज तो स्थिति यह हो चली है कि माता-पिता भूल से अपने बच्चे को 'तू-या तुम' का वात्सल्य भरा, अपने बड़े होने का प्यार नहीं दे पाते। बच्चा माता-पिता के लाड़-दुलार का भूखा रहता है। जो लाड़ पिता या माता के 'तू' में ही मिल सकता है, वही लाड़-दुलार 'आप' में कैसे सम्भव है? कृष्ण और यशोदा की बातचीत में 'तू तेरे' के सम्बोधन में माँ की ममता और पुत्र की आत्मीयता निम्न पंक्तियों में देखते ही बनती है। कृष्ण माता यशोदासे कहते हैं- माँ तू तो बहुत भोली है, जो इन ग्वाल-बालों के बहकायें में आकर इनका विश्वास कर लेती हैं, यथा . तू जननी मन की अति भोरी, इनके कहे पतियायो ! इसी तरह यशोदा कृष्ण से कहती हैं: सूर-स्याम मोहि गोधन की सौं हौं माता तू पूत ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 144