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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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रहा है। उस दुःख से छुटकारा कैसे हो और परमसुख का अनुभव कैसे प्रगट हो? अपना सत्यस्वभाव जाने-अनुभव करे तो सुख प्रगट होकर, दुःख से मुक्ति हो। रागादि भावों को तथा देहादि पर के कार्यों को अपना मानकर और अपने ज्ञानस्वरूप को भूलकर भ्रम से जीव, चार गति में परिभ्रमण कर रहा है; उससे छूटने के लिये ज्ञानस्वभावी आत्मा जैसा है, वैसा जानना चाहिए। इसके लिए वीतरागी सन्तों ने अलौकिकरूप से उसका स्वरूप समझाया है। ____ आत्मा का स्वरूप ऐसा नहीं है कि देहादि की क्रिया को अथवा कर्म के उदयादि को करे; ज्ञानस्वरूप आत्मा विशुद्ध ज्ञानभावमात्र है, उसका ज्ञान परज्ञेयों को कर्ता या भोक्ता नहीं है। आँख का दृष्टान्त देकर आचार्यदेव इस बात को समझाते हैं।
ज्यों नेत्र, त्यों ही ज्ञान नहिं कारक, नहीं वेदक अहो! जाने हि कर्मोदय, निरजरा, बन्ध त्यों ही मोक्ष को॥
जैसे -- नेत्र, अर्थात् आँख, वह अग्नि को देखती है परन्तु उसे करती नहीं है और वह अग्नि को वेदती भी नहीं है; इसी प्रकार ज्ञान भी आँख की तरह, कर्म को अथवा रागादि को जानता ही है परन्तु उन्हें कर्ता या वेदता नहीं है। ज्ञान में विकार का या जड़ का वेदन नहीं है।
दर्शन और ज्ञान, वे भगवान आत्मा के चक्षु हैं; वे दर्शन ज्ञान चक्षु, शरीर को अथवा रागादि विकल्पों को नहीं करते हैं। जैसे, आँख से अग्नि नहीं सुलगती; उसी प्रकार ज्ञानभाव से पर के अथवा राग के कार्य नहीं होते। जिस प्रकार संधूकड़, अर्थात् ईंधन अग्नि का कर्ता है और अग्नि से तप्त लोहखण्ड का गोला, उम